श्रीमाताजी के रूप और शक्तियां

 

'' माता '' पुस्तक में प्रयुक्त कुछ शब्दों की व्याख्या

 

१. मिध्यात्व और अज्ञान

 

अज्ञान का अर्थ है अविद्या, पृथगात्मिका चेतना और उससे प्रवाहित होने- वाला अहंकारपूर्ण मन और प्राण तथा वह सब कुछ जो पृथगात्मिका चेतना और अहंकारपूर्ण मन तथा प्राण के लिये स्वाभाविक है । यह अज्ञान उस क्रिया का परिणाम है जिसके द्वारा विश्वव्यापी बुद्धि-शक्ति ने अपने- आपको अतिमानस  (भागवत विज्ञान ) की ज्योति से पृथक् कर लिया और सत्य को -सत्ता के सत्य को, भागवत चेतना के सत्य को, शक्ति और क्रिया के सत्य को, आनन्द के सत्य को -खो दिया । उसका फल यह हुआ है कि भागवत विज्ञान की ज्योति में सृष्ट पूर्ण सत्य और दिव्य सामंजस्य के जगत् के स्थान पर हमने पाया है एक ऐसा जगत् जो एक निम्न कोटि की विश्वव्यापी बुद्धि-शक्ति के आशिक सत्यों पर प्रतिष्ठित है -उस बुद्धि-शक्ति के जिसमें सब कुछ अध- सत्य, अध-मिथ्या होता है । यही वह चीज है जिसे शंकर-जैसे कुछ प्राचीन दार्शनिकों ने । उसके पीछे विद्यमान महत्तर सत्यशक्ति (ऋत-चित् ) को बिना देखे, ' माया ' कह दिया और भगवान् की उच्चतम सर्जनात्मिका शक्ति मान लिया । इस सृष्टि की चेतना के अंदर सब कुछ या तो सीमित होता है अथवा त ज्योति से पृथक् होने के कारण विकृत होता है; यहांतक कि जिस सत्य को वह चेतना देखती है वह केवल अर्ध-ज्ञान होता हे । इसीलिये उसे कहा जाता है अज्ञान ।

 

  दूसरी ओर, मिथ्यात्व ठीक यह अविद्या ही नहीं, बल्कि उसका एक चरम परिणाम है । इसकी सृष्टि होती है एक आसुरिक शक्ति के द्वारा जो इस सृष्टि में हस्तक्षेप करती है और जो केवल सत्य से पृथक् ही नहीं हुई है और इस कारण ज्ञान में सीमित और भ्रांति की ओर उद्घाटित ही नहीं, बल्कि सत्य के विरुद्ध विद्रोह किये हुई है अथवा सत्य को केवल विकृत करने के लिये ही उसे पकड़ने की आदी है । यह शक्ति, यह काली आसुरिक शक्ति या राजसी माया अपनी निजी विकृत चेतना को सच्चे ज्ञान के रूप में और अपनी जान-

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बूझकर की हुई सत्य की विकृतियों या उससे एकदम उलटी चीजों को वस्तुओं के सत्य के रूप में सामने रखती है । इसी विकृत और विकृतिकारिणी चेतना की शक्तियों और व्यक्तिरूपों को हम विरोधी सत्ताएं । विरोधी शक्तियां कहते हैं । जब कभी ये शक्तियों अज्ञान के सत्त्व के द्वारा विकृतियों की सृष्टि करती और उन्हें वस्तुओं के सत्य के रूप में सामने रखती हैं तब उन्हीं को हम । यैागिक अथ में, ' मिथ्या ', ' मोह ' कहते हैं ।

 

२. शक्तियां और आकृतीयां

   ये सब वे शक्तियां और सत्ताएं हैं जो अज्ञान के जगत् में अपने ही द्वारा उत्पन्न की हुई मिथ्या चीजों को बनाये रखने में तथा उन्हें सत्य के रूप में, जिसका अनुसरण मनुष्यों को करना ही होगा । सामने रखने मैं दिलचस्पी रखती हैं । भारत में उन्हें कहा जाता है असुर, राक्षस, पिशाच (क्रमश: मनोमय प्राणलोक, मध्य-प्राणलोक ओर निम्न प्राणलोक की सत्ताएं) जो ज्योति की शक्तियों, देवताओं के विरोधी होते हैं । ये हैं शक्तियां ही, क्योंकि इनका भी विश्व के अंदर अपना क्षेत्र होता है जिसके अंदर ये अपनी क्रिया और अधिकार का प्रयोग करती हैं और इनमें से कुछ एक समय दिव्य शक्तियां थी ' पूर्व देवा: ' । (जैसे कि महाभारत में कहीं पर इन्हें नाम दिया गया है । ) जो विश्वब्रह्माण्ड के पीछे विद्यमान भागवत संकल्प-शक्ति के विरुद्ध विद्रोह करने के कारण अंधकार में गिर गयी हैं । ' आकृतियां ' शब्द उन रूपों को सूचित करता है जिन्हें ये जगत् पर शासन करने के लिये ग्रहण करती हैं और जो अधिकांश में झूठे होते हैं और बराबर ही मिथ्यात्व को प्रकट करनेवाले तथा कभी-कभी झूठा दिव्य त्व लिये हुए होते ?

 

३. शक्तियां और व्यक्तित्व

  'शक्ति' (power) शब्द के व्यवहार की बात समझायी जा चुकी है -जो कोई चीज या जो कोई व्यक्ति विश्व-क्षेत्र में सचेतन रूप से शक्ति का प्रयोग करे और जिसे संसार की गति के ऊपर या उसकी किसी विशिष्ट क्रिया के ऊपर अधिकार हो, उसके लिये इस शब्द का प्रयोग किया जा सकता है । परंतु जिन चार ' की बात तुम कहते हो वे भी शक्तियां हैं । परम दिव्य चेतना और शक्ति की, भगवती माता की विभिन्न शक्तियों की अभिव्यक्तियां हैं । जिनके द्वारा

 

  ' महेश्वरी, महाकाली । महालक्ष्मी और महासरस्वती !

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वह विश्व पर शासन करती और यहां कार्य करती हैं । और फिर साथ ही वे दिव्य व्यक्ति-स्वरूप भी हैं, क्योंकि उनमें से प्रत्येक एक सत्ता है -जो परम देव के विभिन्न गुणों को तथा व्यक्तिगत चैतन्य -रूपों को अभिव्यक्त करती है । इस तरह सभी बड़े -बड़े देवतागण भगवान् के व्यक्तिस्वरूप है -एक ही चेतना बहुत-से व्यक्तिरूपों में लीला करती है, ' एकं सत् बहुधा ' । मनुष्यों के भीतर भी बहुत-से व्यक्ति-रूप होते हैं, केवल एक ही रूप नहीं होता । जैसा कि पहले लोग कल्पना किया करते थे । क्योंकि सभी चेतनाएं एक साथ ही ' एक ' और  ' बहु ' दोनों हो सकती हैं । ''शक्तियां और व्यक्ति-स्वरूप '' एक ही सत्ता के विभिन्न रूपों को सूचित करते हैं । यह जरूरी नहीं है कि शक्ति निवैयक्तिक ही हो और निश्चय ही वह तुम्हारे संकेत के अनुसार ' अव्यक्तम् ' तो हर्गिज नहीं होती -उसके विपरीत,  यह एक व्यक्त रूप है जो भागवत अभिव्यक्ति के जगतों में काय करता है ।

 

अंश-विभूतियां

 

   तुम्हारे पत्र में वर्णित 'मातृकाएं ' अंश-विभूतियों (Emanations) के साथ मिलती-जुलती हैं । श्रीमां की अंशविभूति उनकी चेतना और शक्ति का कुछ अंश है जिसे वे अपने भीतर से प्रकट करती हैं और जो, जबतक कि वह लीला के अंदर हैं, उनके साथ घनिष्ठ रूप में जूड़ा होता है और जब उसकी लीला की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती तब अपने मूल उद्गम के अंदर वापस खींच लिया जाता है, पर जो हमेशा प्रकट किया जा सकता है और लीला में लाया जा सकता है । परंतु संपर्क को बनाये रखनेवाला धागा काटा या खोला भी जा सकता है और जो चीज एक अंशविभूति के रूप में प्रकट हुई थी वह एक स्वतंत्र दिव्य सत्ता के रूप में अपने ढंग से काम कर सकती है और जगत् में अपनी निजी लीला चरितार्थ कर सकती है । सभी देवता इस तरह की अंशविभूतियां अपनी सत्ता में से उत्पन्न कर सकते हैं जो तत्त्वत: चेतना और शक्ति में उनसे मिलती-जुलती हैं यद्यपि एकदम एकसमान नहीं होतीं । एक विशेष अर्थ में स्वयं विश्व को भी परात्पर भगवान् से पैदा हुई एक अंशविभूति कह सकते हैं । साधक की चेतना में श्रीमां को अंशविभूति साधारणतया वही रूप, आकार और स्वभाव ग्रहण करती है जिससे वह परिचित होता है ।

   एक अर्थ में श्रीमां की चारों शक्तियां, अपने मूलस्रोत के कारण, उनकी अंशविभूतियां कही जा सकती हैं, ठीक जैसे कि देवताओं को ' भगवान् ' की अंशविभूतियां कह सकते हैं !परंतु उनका रवभाव एवं रवरूप देवताओं की  

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अपेक्षा अधिक स्थायी और सुनिश्चित होता है । वे स्वतंत्र सत्ताएं हैं जिन्हें आद्या-शक्ति ने अपनी- अपनी लीला करने की छूट दे रखी है और साथ ही, माताजी के -महाशक्ति के - अंश भी हैं । धीमां चाहें तो बराबर ही उनके द्वारा पृथक्-पृथक् सत्ताओं के रूप में प्रकट हो सकती हैं अथवा उन्हें अपने ही विभिन्न व्यक्तित्वों के रूप में एक साथ खींच सकती हैं और अपने अंदर धारण कर सकती हैं । वे चाहें तो उन्हें पीछे हटाये रखें और चाहें तो लीला करने दें । यह उनकी इच्छा है । अतिमानस स्तर पर वे श्रीमां के अंदर ही रहती हैं और स्वतंत्र रूप में कार्य नहीं करतीं बल्कि अतिमानसिक महाशक्ति के घनिष्ठ अंशों के रूप में कार्य करती हैं और एक दूसरे के साथ घना एकत्व और सामंजस्य बनाये रखती हैं ।

 . देवता

    ये चार शक्तियां श्रीमां की वैश्व दिव्य-शक्तियां हैं जो जगत्-लीला में स्थायी रूप से रहती हैं; इनकी गणना उन महत्तर विश्व-देवताओं के अंदर होती है जिनको लक्ष्य करके ही यह कहा गया है कि इस त्रिविध जगत् की महाशक्ति के रूप में माताजी वहां (अधिमानस-लोक में ) '' देवताओं से ऊपर अधिष्ठान करती हैं । '' देवतागण, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, मूलत: और तत्त्वत: भगवान् की स्थायी अंशविभूतियां हैं जिन्हें परात्परा माता ने, आद्याशक्ति ने परात्पर भगवान् के अंदर से उत्पन्न किया है; अपनी विश्व क्रियाओं में वे भगवान् की शक्तियां और व्यक्तिस्वरूप हैं और उनमें से प्रत्येक का विश्व के अंदर अपना स्वतंत्र स्थान, स्वभाव और कम है । वे निर्वयक्तिक -निराकार सत्ताएं नहीं हैं बल्कि वैश्व व्यक्ति हैं, यद्यपि साधारणतया वे निवैंयक्तिक शक्तियों की क्रिया के पीछे अपने को छिपा सकते हैं और छिपाते भी हैं । परंतु एक ओर जहां अधिमानस लोक में और इस त्रिविध जगत् में वे स्वतंत्र सत्ताओं के रूप में दिखायी देते हैं वहां दूसरी ओर वे अतिमानस-लोक में ' एकमेवाद्वितीयम्' के अंदर वापस चले जाते हैं और वहां वे केवल एक सुसमंजस कार्य के अंदर युक्त होकर एक ही ' व्यक्ति ' के । दिव्य पुरुषोत्तम के बहुविध व्यक्ति-स्वरूपों के रूप में विद्यमान रहते हैं ।

 

६. उपस्थिति (presence)

   उपस्थिति (presence) शब्द से यह सूचित करना अभीष्ट है कि भगवान् का एक 'पुरुष' के रूप में संवेदन एवं प्रत्यक्ष अनुभव होता हैं, यह अनुभव   

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होता है कि वह ' पुरुष ' व्यक्ति की सत्ता एवं चेतना में उपस्थित है या उसके साथ उसका संबंध है और उसकी कोई, और विशेषता बतलाने या उसका वर्णन करने की आवश्यकता नहीं । इस प्रकार, '' अनिर्वचनीय उपस्थिति'' के विषय में केवल यही कहा जा सकता है कि यह वहां है और इससे अधिक न कुछ कहा जा सकता है, न कहने की आवश्यकता है । यद्यपि इसके साथ ही व्यक्ति जानता होता है कि सब कुछ वहां है, व्यक्तित्व और निर्वैयक्तिकता, । शक्ति और ज्योति और आनंद तथा और सब कुछ भी , और कि ये सभी उसी अवर्णनीय उपस्थिति से प्रवाहित होते हैं । यह शब्द कभी-कभी कम निरपेक्ष अर्थ में प्रयुक्त हो सकता है, पर मूल तात्पर्य सदा यही होता है, - अन्य प्रत्येक वस्तु को आश्रय देनेवाली सारभूत उपस्थिति का वास्तविक प्रत्यक्ष ।

 

परात्परा मां

 

यही हैं जिन्हें आद्या शक्ति का नाम दिया गया है; ये विश्वातीत परम चेतना और शक्ति हैं और इन्हें से सब देवता उत्पन्न हुए हैं, यहांतक कि अतिमानसिक ईश्वर भी -वह विज्ञानमय पुरुषोत्तम भी जिनकी शक्तियां और व्यक्ति-रूप देवता- गण हैं -इन्हें के द्वारा अभिव्यक्ति में आते हैं ।

 

आद्या शक्ति

 

आद्या शक्ति मूल शक्ति है और इसलिये श्रीमां का सबसे ऊंचा रूप है । वे देखनेवाले के स्तर के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती हैं ।

२२ - ७ - ११३३

 

भगवती माता

भगवती माता भगवान् की चित्-शक्ति हैं -जो समस्त वस्तुओं की जननी हैं ।

 

श्रीमां और ईश्वर

 

श्रीमां भगवान् की चेतना और शक्ति हैं - अथवा, यह कहा जा सकता है कि वे चिच्छक्ति-रूप में स्वयं भगवान ही हैं । विश्व के स्वामी के रूप में ईश्वर

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श्रीमां के अंदर से प्रकट होते हैं और श्रीमां उनकी बगल में विश्व-शक्ति के रूप में अपना स्थान ग्रहण करती हैं -विराट् ईश्वर भगवान् का एक रूप हैं ।

 

गीता, तन्त्र और पूर्णयोग में भगवती माता

 

गीता स्पष्ट रूप में भगवती माता की बात नहीं कहती; वह बराबर ही पुरुषोत्तम को आत्मसमर्पण करने के लिये कहती है -वह भगवती माता का जिक्र केवल परा प्रकृति के रूप में करती है जो जीव बनती है -' जीवभूता ', अर्थात् जो भगवान् को ' बहु' के अंदर अभिव्यक्त करती है और जिसकी सहायता से परात्पर प्रभु ने इन सब जगतों की सृष्टि की है तथा वे स्वयं अवतार के रूप में उतरते हैं । गीता वैदान्तिक परम्परा का अनुसरण करती है जो पूरी तरह से भगवान् के ईश्वर-स्वरूप पर जोर देती है और भगवती माता की बात बहुत कम करती है, क्योंकि उसका उद्देश्य है जगत्-प्रकृति से पीछे हट जाना और उसके परे जाकर चरम उपलब्धि प्राप्त करना; तान्त्रिक परम्परा शक्ति या ईश्वरी रूप पर अधिक जोर देती

है और सबको भगवती माता पर ही निर्भर रहने को बाध्य करती है, क्योंकि उसका उद्देश्य है विश्व-प्रकृति को वश में करना और उस पर शासन करना तथा उसी के द्वारा उपलब्धि प्राप्त करना । यह योग इन दोनों पर जोर देता है; भगवती माता के प्रति आत्मसमर्पण करना आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना इस योग का उद्देश्य ही सिद्ध नहीं हो सकता ।

   पुरुषोत्तम के सम्पर्क में भगवती माता जागतों से ऊपर की परात्परा दिव्य चेतना और शक्ति, आद्या शक्ति हैं; वह परात्पर को अपने अंदर धारण करती हैं और अक्षर और क्षर के द्वारा भगवान् को विभिन्न जगतों में अभिव्यक्त करती हैं । अक्षर के सम्पर्क में वे वही परा शक्ति हैं जो समस्त सृष्टि के पीछे अपने अंदर पुरुष को निष्क्रिय-निश्चल रूप में धारण करती हैं और स्वयं भी उसके अंदर स्थिर -निश्चल रहती हैं । क्षर के संपर्क में वे सचल विश्व-शक्ति हैं जो सभी सत्ताओं और शक्तियों को प्रकट करती हैं । 

 

*

 

श्रीमां के विषय में यह अनुभूति कि वे ही परात्पर तत्त्व हैं, एक तांत्रिक अनुभूति है-यह सत्य का एक पक्ष है ।

 

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    तान्त्रिक अपनी साधना में शक्ति का आवाहन किया करते थे! क्या वह वही शक्ति और चेतना थी जो यहां माताजी में है?

 

यह इस पर निर्भर करता है कि वे किस शक्ति का आवाहन करते थे - सामान्यतया वे श्रीमाताजी के किसी रूप को ही पुकारा करते थे ।

 

 जगज्जननी

 

ईश्वरी शक्ति । दिव्य चिच्छक्ति और जगज्जननी शाश्वत ' एक ' और अभिव्यक्त  ' बहु ' के बीच मध्यस्था बन जाती हैं । एक ओर, जिन शक्तियों को वे ' एक ' के भीतर से ले आती हैं उनके खेल के द्वारा वे विश्व के अंदर बहुविध भगवान् को प्रकट करती हैं और अपने प्रकट करनेवाले पदार्थ के भीतर से उस ' बहु ' के अनंत रूपों को भीतर गठित और बाहर विकसित करती हैं । दूसरी ओर । उन्हीं शक्तियों की पुन: - आरोहणकारी धारा के द्वारा वे सबको ' उस ' की ओर वापस ले जाती हैं जिससे वे इसलिये उत्पन्न हुए हैं कि अंतरात्मा अपनी विकसनशील अभिव्यक्ति के अंदर अधिकाधिक या तो वहां विद्यमान भगवान् की ओर वापस जा सके अथवा यहां अपने दिव्य स्वभाव को धारण कर सके । उनके अंदर किसी निश्चेतन यन्त्रस्वरूप कायकारिणी शक्ति का स्वभाव नहीं है जिसे हम प्रकृति के प्रथम बाह्य स्वरूप -प्रकृति-शक्ति के अंदर पाते हैं । यद्यपि वह एक विश्वव्यापी यंत्र की रचना करती है; और न वहां असत् का भ्रम या अर्ध- भ्रम की जननी का वह बोध है जो मायासंबंधी हमारे पहले दृष्टिकोण के साथ लगा रहता है । अनुभव करनेवाले जीव के सामने यह तुरत प्रकट हो जाता है कि यहां एक सचेतन शक्ति है जो सत्त्व और प्रकृति में उन परात्पर के साथ एक है जिनसे कि वह उत्पन्न हुई थी । अगर हमें ऐसा मालूम होता है कि उसने हमें अज्ञान और निश्चेतन के अंदर डूबा दिया है और डूबा दिया है एक ऐसी योजना का अनुसरण करने के लिये जिसकी हम अभी कोई व्याख्या नहीं दे सकते । अगर उसकी शक्तियां विश्व की इन सब अस्पष्ट शक्तियों के रूप में हमारे सामने प्रकट होती हैं । तो भी बहुत शीघ्र यह दिखायी पंड जाता है कि वह हमारे अंदर भागवत चेतना का विकास करने के लिये कार्य कर रही है और वह ऊपर खड़ी होकर हमें अपनी निजी उच्चतर सत्ता की ओर खींच रही है, हमारे सामने अधिकाधिक भागवत ज्ञान । संकल्पशक्ति और आनंद का सार- तत् रब प्रकट कर रही हैं!   यहांतक की अज्ञान के अंदर भी जिज्ञासु

 

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का अंतरात्मा उसके उस सज्ञान पथप्रदर्शन के विषय में सचेतन होता है जो उसके पगों को संभालता है और उन्हें धीरे - धीरे या शीघ्रता से, सीधे या बहुतेरे टेढे-मेढे रास्तों से अंधकार से बाहर निकालकर एक महत्तर चेतना के प्रकाश में, मृत्यु से बाहर निकालकर अमरता में । अशुभ और दुःख-कष्ट से बाहर निकालकर उच्चतम शुभ और आनंद में ले जाता है जिसके केवल एक क्षीण रूप की कल्पना उसका मानव मन अभी कर सकता है । इस तरह उसकी शक्ति एक साथ ही मुक्तिदायिनी और क्रियाशील । सृष्टिक्षम, फलोत्पादिका होती है - केवल ऐसी चीजों की सृष्टि करने में समर्थ नहीं होती जैसी कि अभी है, बल्कि ऐसी चीजों की सृष्टि करने में भी समर्थ होती है जो होनेवाली हैं; क्योंकि अज्ञान के तत्त्व से बनी हुई साधक की निम्नतर चेतना की ऐंठी और उलझी हुई क्रियाओं को दूर कर वह उसके अंतरात्मा और प्रकृति को एक उच्चतर दिव्य प्रकृति के सत्त्व और शक्तियों के द्वारा फिर से गढ़ती और नया रूप देती है । '

 

श्रीमां और निम्न-प्रकृति

 

श्रीमां को निम्नतर प्रकृति और उसके शक्ति-समूह के साथ एक समझना भूल है । यहां प्रकृति केवल एक मशीन है जो विकसनशील अज्ञान की क्रिया के लिये उत्पन्न की गयी है । जिस तरह अज्ञ मनोमय । प्राणमय या अन्नमय सत्ता स्वयं भगवान् नहीं है, यद्यपि वह आती भगवान् से ही है -वैसे ही प्रकृति-रूपी यन्त्र भगवती माता नहीं है । निस्सन्देह इस यन्त्र के अंदर और पीछे भगवती माता का कुछ अंश वर्तमान है जो क्रमविकास को सिद्ध करने के लिये इसे बनाये रखता है; पर स्वयं श्रीमां अविद्या की शक्ति नहीं हैं, बल्कि भागवत चेतना, शक्ति । ज्योति हैं, परा प्रकृति हैं जिनकी ओर हम मुक्ति और दिव्य परिपूर्णता के लिये मुड़ते हैं ।

 

      अज्ञान की विश्वव्यापी शक्ति और भगवती माता

 

इसमें इतना-सा सत्य है कि विश्वशक्ति प्रत्येक चीज को कार्यान्वित करती है और विश्वव्यापी आत्मा (विराf पुरुष) उसके कार्य को धारण करता है । विश्व-

 

'' योग-समन्वय ' '- से

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शक्ति एक ऐसी शक्ति है जो अज्ञान की शतों के अधीन काय करती हे -यह निम्नतर प्रकृति के रूप में दीख पड़ती है और निम्नतर प्रकृति तुमसे गलत काम कराती है । भगवान् इन सब शक्तियों का खेल तबतक होने देते हैं जबतक तुम स्वयं कोई और अच्छी चीज नही चाहते । पर तुम यदि साधक हो तो तुम निम्नतर प्रकृति के खेल को स्वीकार नहीं करते, उसके बदले भगवती माता की ओर मुड़ते हो, और निम्नतर प्रकृति के बदले उनसे अपने द्वारा कार्य करने के लिये कहते हो । जब तुम अपनी सत्ता के प्रत्येक भाग में पूर्ण रूप से भगवती माता की ओर और एकमात्र उन्हीं की ओर मुंड जाते हो, केवल तभी भगवान् तुम्हारे द्वारा सभी कमी को करते हैं ।

 

सगुण और निर्गुण ईश्वर और श्रीमां

 

निर्गुण और सगुण केवल अलग- अलग रूप हैं जिन्हें भगवान् अभिव्यक्ति के अंदर ग्रहण करते हैं । श्रीमां ही सगुण या निर्गुण ईश्वर को अभिव्यक्त करती हैं  (सृष्टि और कुछ नहीं, केवल अभिव्यक्ति है ) ।

 

२८ - ६- ११३३

 

शांत आत्मा, सक्रिय ब्रह्म और श्रीमां

 

वे अतुभूतियां बिलकुल ठीक थीं -परंतु वे भागवत सत्य के केवल एक ही पक्ष को दे रही हैं, उस पक्ष को दे रही हैं जिसे मनुष्य उच्चतर मन के द्वारा प्राप्त करता है -दूसरा पक्ष भी है जिसे मनुष्य हृदय के द्वारा प्राप्त करता है । उच्चतर मन से ऊपर ये दोनों सत्य एक हो जाते है, । अगर कोई ऊपर शांत आत्मा को प्राप्त करे तो इसमें कोई खतरा नहीं है, परंतु साथ ही उससे कोई रूपांतर भी नहीं होता, केवल मोक्ष, निर्वाण प्राप्त होता है । अगर कोई विश्वात्मा को । सशक्त और सक्रिय रूप में, प्राप्त करे तो वह सबको आत्मा के रूप में, सबको स्वयं अपने रूप में । उस आत्मा को भगवान् के रूप में अनुभव करता है इत्यादि । यह सब सत्य है; परंतु खतरा इस बात का है कि वहां जो यह भाव है कि '' सब कुछ स्वयं मैं हूं '' उसमें ' मैं ' को कहीं अहंकार अपने चंगुल में न ले ले । क्योंकि यह ' में-पन ' मेरा व्यक्तिगत आत्मा नहीं है, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का आत्मा है और साथ ही मेरा भी है । ऐसे किसी खतरे से छुट्टी पाने का उपाय यह है कि हम बात को याद रखों कि ये भगबन् 'माता' भी

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हैं । व्यक्तिगत ' मैं ' उन मां की संतान है जिनके साथ मैं एक हूं । फिर भी उनसे भिन्न हूं, उनका बालक, सेवक । यन्त्र हूं । मैं कह चुका हूं कि तुम्हें आत्मा को विश्व-चेतना के रूप में अनुभव करना बंद नहीं करना चाहिये, बल्कि उसके साथ-साथ यह याद रखना चाहिये कि सब कुछ श्रीमां ही हैं ।

*

 

यह संभव है कि ' एकमेवाद्वितीय ' में लय को प्राप्त होने की अनुभूति से आरंभ करके मनुष्य ज्ञान की ओर अग्रसर हो । पर शर्त यह है कि वह वहीं पर रुक न जाये । उसे ही उच्चतम सत्य न समझ बैठे । बल्कि उसी ' एक ' को परात्पर मां । सनातन भगवान् की चिच्छक्ति, के रूप में उपलब्ध करने के लिये आगे बढ़े । अगर दूसरी ओर, तुम परात्परा मां के द्वारा आगे बढ़ो तो वे तुम्हें निश्चल-नीरव ' एक ' के अंदर प्राप्त मुक्ति भी प्रदान करेंगी तथा साथ ही सक्रिय ' एकमेवाद्वितीय ' की अनुभूति भी देंगी । और फिर उस सत्य को प्राप्त करना आसान हो जायेगा जिसमें वे दोनों एक और अविच्छेद्य हैं । उसके साथ- ही-साथ परात्पर भगवान् और उसकी अभिव्यक्ति के बीच जिस खाई को मन तैयार किये हुए है, वह भी पट जाती है और फिर उसके बाद सत्य के अंदर कोई ऐसी दरार नहीं रह जाती जो हर चीज को दुबोध बना दे ।

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वास्तव में भगवान् ही प्रभु हैं - आत्मा तो निफिय होता है, वह बराबर ही सब वस्तुओं को सहारा देनेवाला निश्चल-नीरव साक्षी होता है -वही स्थाणु । अचल भाव है । एक सक्रिय भाव भी है जिसके द्वारा भगवान् कार्य करते हैं -उसी के पीछे श्रीमां विद्यमान हैं । तुम्हें इस बात को आंख से ओझल नहीं होने देना चाहिये कि श्रीमां के द्वारा ही सब चीजें प्राप्त होती हैं ।

१ -१ - ११३३

 

*

तुम परम आत्मा का साक्षात्कार प्राप्त करने के लिये यत्न कर रहे हो -पर वह आत्मा यदि माताजी का आत्मा नहीं तो क्या है? और कोई आत्मा है ही नहीं ।

 

२१ - १ - ११३४

 

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परम आत्मा के दो पक्ष हैं निष्क्रय और सक्रिय । पहले के अनुसार वह शुद्ध नीरवता, विशालता और स्थिरता है, निष्क्रय ब्रह्म है, दूसरे के अनुसार वह है विराट् आत्मा, वैश्व न कि व्यक्तिगत । उसमें व्यक्ति माताजी के साथ सायुज्य या एकत्व अनुभव कर सकता है । घनिष्ठता व्यक्ति-गत भाव है, अतः वह चैत्य पुरुष का भाव है ।

 

१८ - १० - ११३४

 माताजी की विश्वगत और उपरिथाती

 

 

माताजी के निराकार स्वरूप से लोगों का क्या अभिप्राय होता है ?-साधारणतया उनका अभिप्राय उनके वै छ रूप से होता है । जब उनका यों अनुभव होता है कि वे एक ऐसी वैश्व सत्ता एवं शक्ति हैं जो सारे विश्व में फैली हुई है और जिसमें तथा जिसके सहारे सभी रहते-सहते हैं तो वह उनका यही विश्वगत रूप होता है । जब कोई उस '' उपस्थिति '' को अनुभव करता है तो वह निःसीम वैश्व शांति । ज्योति, शक्ति और आनंद अनुभव करने लगता है -यही है माताजी का  ' स्वरूप ' । इस स्वरूप का साक्षात्कार व्यक्ति को बारंबार तभी होता है जब वह सिर से ऊपर की चेतना में आरोहण करता है जहां वह इस सीमाबद्ध देह- चेतना से युक्त होकर अपने- आपको भी एक विशाल एवं स्थिर सत्ता अनुभव करता है । अपने को सर्वभूतों के साथ एकात्मा अनुभव करता है-शाश्वत शांति में प्रतिष्ठित तथा आवेग एवं विक्षोभ से मुक्त । पर इसका अनुभव हृदय के द्वारा भी प्राप्त हो सकता है -तब हृदय भी अपने को जगत् के समान विशाल, शुद्ध एवं आनंदपूर्ण तथा माताजी की उपस्थिति से परिपूरित अनुभव करता है । हृदय में माताजी की व्यक्तिगत और व्यष्टि गत उपस्थिति भी है जो सीधे ही प्रेम और भक्ति पैदा करती है तथा अंतरंग घनिष्ठता एवं व्यक्तिगत एकता की अनुभूति प्रदान करती है ।

 

१ - ६ - १९३५

 

भागवत शक्ति में श्रद्धा हमारी सामर्थ्य के पीछे सदा ही रहनी चाहिये और जब शक्ति प्रकट हो जाये तो श्रद्धा असंदिग्ध और च होनी या बन जानी चाहिये । ऐसी कोई चीज नहीं जो उसके लिये असंभव हो क्योंकि वह एक चिन्मय शक्ति तथा विराट् भगवती है जो सनातन काल से सबका सृजन करनेवाली जननी है तथा परमात्मा की सर्वशक्तिमत्ता से सुसंपत्र है । संपूर्ण ज्ञान, समस्त शक्तियां,

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समस्त सफलता और विजय । समस्त कौशल और कर्म-कलाप उसी के हाथों में हैं और वह परम आत्मा के ऐश्वर्यों तथा समस्त पूर्णताओं एवं सिद्धियों से परिपूर्ण है । वह महेश्वरी अर्थात् परम ज्ञान की देवी हे, और सब प्रकार के सत्यों के लिये तथा सत्य के सभी विशाल रूपों के लिये अपनी अंतर्दृष्टि हमें प्राप्त कराती है । हमारे अंदर अपनी आध्यात्मिक संकल्प-संबंधी यथार्थता । अपनी अतिमानसिक विशालता की शांति और संवेगशीलता तथा अपना ज्योतिर्मय आनंद लाती है; वह महाकाली अर्थात् परम शक्ति की देवी है । और समस्त शक्तियां, आत्मबल, तपस् की उग्रतम कठोरता । संग्राम का वेग, विजय और अट्टहास्य उसी के अंदर विद्यमान हैं, अट्टहास्य ऐसा जो कि पराजय और मृत्यु को तथा अज्ञान की शक्तियों को तृणवत् समझता है : वह महालक्ष्मी है । परम प्रेम और आनंद की देवी है, ओर उसकी देनें हैं आत्मा की सुषमा । आनंद की मोहकता और सुन्दरता, अभयदान और प्रत्येक प्रकार का दैवी एवं मानवीय वरदान : वह महासरस्वती है, दिव्य कौशल की तथा परम आत्मा के सब क्यों की अधिष्ठात्री देवी है, और जिस योग को कर्म-कौशल, ' योग : कर्मसु कौशलम्' कहा जाता है वह महासरस्वती का ही हे । इसी प्रकार दिव्य ज्ञान के नाना उपयोग, आत्मा का अपने- आपको जीवन के क्षेत्र में प्रयुक्त करना और उसकी समस्वरताओं का आनंद महासरस्वती के ही गुण और काय हैं । अपनी सभी शक्तियों और अपने सभी रूपों में वह सनातन ईश्वरी के प्रभुत्व की परमोच्च भावना को अपने संग रखती है; साथ ही, किसी यंत्र से जिन कार्य के की मांग की जा सकती है उन सब प्रकार के कार्यों के लिये तीव्र और दिव्य सामर्थ्य । सर्वभूतों की सभी शक्तियों के साथ एकता, सहानुभूति एवं सुख-दुःख-सहभागिता । मुक्त तदात्मता, और अतएव विश्व में कार्य कर रहे समस्त दिव्य संकल्प के साथ स्वयंस्कूर्त एवं फलप्रद सामंजस्य -इन सब गुणों को भी वह अपने संग रखती है । उसके सान्निध्य और उसकी शक्तियों का घनिष्ठ अनुभव, और हमारे भीतर और चारों ओर उसकी जो क्रियाएं हो रही हैं उनके प्रति हमारी संपूर्ण सत्ता की संतुष्ट स्वीकृति -यह भागवत शक्ति में श्रद्धा की चरम पूर्णता है । और उसके पीछे है ईश्वर; ओर उसमें विश्वास पूर्णयोग की श्रद्धा का सबसे प्रधान अंग है । हमें अपने अंदर यह श्रद्धा धारण और पूर्णतया विकसित करनी चाहिये कि यहां का सभी कुछ परम आत्मज्ञान और प्रज्ञा की उन क्रियाओं का परिणाम है जो विश्व की विराट् परिस्थितियों में घटित होती हैं । हमारे अंदर या चारों ओर जो कुछ भी होता है उसमें ऐसा कुछ भी नहीं या जिसका अपना नियत रथान एवं समुचित अर्थ न

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हो,जब ईश्वर हमारे परमोच्च 'पुरुष'  एवं आत्मा के रूप में हमारे कार्यों को अपने हाथ में ले लेते हैं तब सभी कुछ संभव हो जाता है और जो कुछ वे पहले कर चुके हैं तथा जो कुछ वे भविष्य में करेंगे वह सब उनके निर्भरता एवं पूर्वदर्शी मार्गनिर्देश का अंग था और होगा, साथ ही यह हमारे योग की सफलता, हमारी पूर्णता एवं हमारे जीवन-कार्य के लिये भी अभिप्रेत था और होगा । जैसे-जैसे उच्चतर ज्ञान का द्वार खुलेगा, यह श्रद्धा अधिकाधिक सार्थक सिद्ध होती जायेगी, जो बड़े एवं छोटे मर्म हमारे संकुचित मन की दृष्टि से परे थे उन्हें हम अब देखने लगेंगे और तब श्रद्धा ज्ञान में परिणत हो जायेगी । तब हम सन्देह की जरा-सी भी संभावना के बिना यह देखेंगे कि सभी कुछ एक ही संकल्पशक्ति की क्रिया के अंतर्गत घटित होता है और वह संकल्पशक्ति प्रज्ञा भी है क्योंकि वह जीवन में सदा ही आत्मा और प्रकृति की सच्ची क्रियाओं को विकसित करती है । जब हम ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करेंगे और अपनी सम्पूर्ण सत्ता एवं चेतना को एवं अपने समस्त चिंतन, संकल्प और कर्म को उन्हीं के हाथों में अनुभव करेंगे तथा सभी वस्तुओं में एवं अपनी आत्मा और प्रकृति के प्रत्येक करण के द्वारा परमात्मा की प्रत्यक्ष, अंतर्यामी और प्रभुत्वशालिनी संकल्पशक्ति को अनुमति प्रदान करेंगे तब वह हमारी सत्ता की स्वीकृति अर्थात् श्रद्धा की पराकाष्ठा होगी । और श्रद्धा की वह सवोच्च पूर्णता दिव्य शक्ति के लिये एक अवसर एवं पूर्ण आधार का भी काम करेगी : पूर्णता प्राप्त कर लेने पर वह ज्योतिर्मय अतिमानसिक शक्ति के विकास, आविर्भाव और काय-कलाप का आधार बनेगी ।

 

*

  माता (The mother) पुस्तक मैं आपने कहा हे कि वैध महाशक्ति के रूप में ' 'श्रीमां जो कुछ देखती एवं अनुभव करती हैं तथा अपने में से उंडेलती हे उसके द्वारा इस ब्रह्माण्ड में तथा पार्धिव विकास में जो कुछ घटित होना है उसका निर्धारण करती हैं । ऐसा करती वे वहां देवगण के ऊपर स्थित हैं उनकी सभी शक्तियां और विग्रह ( व्यक्तित्व) इस कार्य के लिये उनके अंदर से बाहर निकल उनके सामने आ उपस्थित होते हैं और वे उनकी अंश- विभूतियों को इन निम्नतर लोकों में भेजती हैं जिससे के ( अर्श- विभूतियां) इनमें अंत: क्षेप करके इनपर शासन करें

 

योग-समन्वय (शताब्दी-संस्करण, ११७२ ) पृ. १०४ - ०६ ।

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    युद्ध करके विजय लाभ करें इनके युगचक्रों का परिचालन आवर्तन एवं परिवर्तन करें, इनकी शक्तियों की समष्टिगत और व्यष्टिगत कार्य- दिशाओं का निर्दलन करें !'' ' क्या इसका यह अर्थ है कि विश्व- युद्ध या बोल्शेविक क्रांति या सत्याग्रह- आन्दोलन आदि किसी रूप में माताजी के द्वारा आयोजित एवं निर्धारित किये गये थे ?

 

वे घटनाएं विश्व-योजना के अन्तर्गत ही हैं और अतएव वैश्व महाशक्ति के द्वारा आयोजित की गयी थीं और प्रकृति की शक्ति के आवेग के अधीन लोगों के द्वारा क्रियान्वित की गयी थीं ।

 

  माताजी की प्रेम और आनंद की अतिमानसिक शक्ति

 

  'चंडी ' पुस्तक में अन्य शक्तियों के साथ- साथ श्रीमां की चार विष्टा- शक्तियों के नाम - महेश्वरी महाकाली महालक्ष्मी और महासरस्वती - तो वर्णित हैं पर ' राधा ' का नाम नहीं दिया गया है यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जब ' चंडी ' की रचना थी तब ऋषियों की

के सामने राधा- शक्ति नहीं प्रकाशित थी और 'वडी ' में केवल श्रीमां की विश्व- शक्तियों का ही वर्णन आया है? उनकी अतिमानसिक शक्तियों का वहां उल्लेख नहीं है 7 अपनी पुस्तक 'दि मदर ' ((दुष्ट अठ'मुष्टव में श्रीम? की चार शक्तियों का वर्णन करने के बाद आपने कहा कि '' मां भगवती के और भी कई महान् व्यक्तित्व हैं पर उनका अवतरण कराना अधिक कठिन रहा और भू- पुरुष के क्रमविकास में के उतनी स्पष्टता के साथ सामने आये भी नहीं हैं । उनमें अवश्य ही कुछ व्यक्तित्व ऐसे हैं जो विज्ञान-सिद्धि के लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं - सबसे अधिक आवश्यक वह है जो माता के परम भागवत प्रेम से प्रवाहित होनेवाले रहस्यमय परम उल्लासमय आनंद की है यह वह आनंद है जो विज्ञान- चैतन्य के उच्चतम शिखर और जड़ प्रकृति के निम्नतम गह्वर के बीच का महान् अंतर मिटाकर दोनों को मिला सकता है अनुपम परम दिव्य जीवन की ' इसी आनंद के पल्ले है और अब भी यही

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    आनंद अपने गुफ्त धाम से विश्व की अन्य सभी महाशक्तियें के  कार्य का सहारा बना हुआ है ! '' इस उद्धरण में जिस मूर्ति बात कही गयी हे क्या वह ' राधाशक्ति ' नहीं है जिसे प्रेममयी राधा महाप्राण- शक्ति और हलादिनी- शक्ति भी कहा गया है?

 

हां; परंतु राधा-कृष्ण-लीला के प्रतीक प्राणमय जगत् से लिये गये हैं और इस कारण वहां जिस शक्ति का वर्णन किया गया है वह राधा-शक्ति केवल एक आंतर प्रकाश है । यही कारण है कि उसे महाप्राण-शक्ति और हाला दिनी-शक्ति कहा गया है । यहां (ऊपर उद्धरण में ) जिस शक्ति की बात कही गयी है वह यह आंतरिक रूप नहीं है बल्कि वह तो ऊपर के प्रेम और आनंद की पूर्ण शक्ति है ।

 

७ - २ - ११३४

 

सभी स्तरों में श्रीमां की शक्तियां

 

क्या महेश्वरी संबोधि और अधिमानस स्तर की देवी हैं?

 

अधिमानस से लेकर भौतिक तक के सभी स्तरों में ये शक्तियां प्रकट हो सकती हैं ।

 

२५ - ८ - ११३३

 

 माताजी की शक्तियों के अनेक रूप

 

जहांतक देवताओं का प्रशन है । मनुष्य उनके ऐसे रूप रच सकता है जिन्हें वे स्वीकार करेंगे, पर इन रूपों की अंतः प्रेरणा भी मनुष्य के मन के अंदर उन्हीं स्तरों से आती है जिनसे वे देवता संबंध रखते है । समस्त सृष्टि के दो पक्ष हैं, साकार और निराकार, -देवता भी निराकार हैं, तथापि उनके आकार भी हैं, पर एक ही देवता अनेक रूप ग्रहण कर सकता है, यहां महेश्वरी का , वहां पालस एथिनी का । स्वयं महेश्वरी के, अपनी निम्नतर अभिव्यक्ति में अनेक रूप हैं -दृर्गा, उमा, पार्वती, चण्डी इत्यादि । देवता मानवीय रूपों की सीमा में आबद्ध नहीं -मनुष्य ने भी उनके दर्शन सदा मानवीय रूपों में ही नहीं किये ।

७ 


कृष्ण-महाकाली

अपनी वैश्व शक्ति में माताजी सभी वस्तुएं तथा सभी दिव्य व्यक्तित्व हैं, क्योंकि उनके बिना तथा उनकी सत्ता का एक अंग-रूप हुए बिना कोई भी वस्तु अभिव्यक्त रूप में नहीं आ सकती । परंतु 'विज़न्स एण्ड वॉयसिज''(visions and voice) में जो कुछ कहा गयाहैउसकाअभिप्राययह था कि ईश्वर और भगवती शक्ति एक ही 'व्यक्ति' या पुरुष के दो पक्ष हैं और कृष्ण- महाकाली के रूप में उनके इस दिव्यदर्शन को इस पुस्तक में इस रूप में प्रस्तुत किया गया है कि यह अभिव्यक्ति के लिये एक महाशक्ति है ।

२०-१०-११३६

 

दुर्गा

 

दुर्गा अपने अंदर महेश्वरी और महाकाली के गुणधमों को कुछ अंश में संयुक्त किये हुई हैं,-महालक्ष्मी के साथ उनका कोई अधिक संबंध नहीं । कृष्ण और महाकाली का संयोग एक ऐसा संयोग है जिसका इस योग में महान् शक्तिशाली प्रभाव होता है और यदि ये नाम तुम्हारी चेतना में एक साथ उठते हैं तो यह अच्छा लक्षण है ।

२१-३-११३८

 

*

 दुर्गा श्रीमां की संरक्षण-शक्ति हैं । 

१५-४-१९३३

 

*

 

सिंह, जिस पर दुर्गा आसीन हों, दिव्यीकृत भौतिक-प्राणिक और प्राणिक- भाविक शक्ति के द्वारा कार्य कर रही भागवत चेतना का प्रतीक होता है । 

 

*

 सिंह देवी दुर्गा का । जगदम्बा के विजयशील और रक्षाकारी पक्ष का सूचकलक्षण है ।

 

     'एक साधक द्वारा लिखी पुस्तक ।

५८ 


  मृत्यु का सिर भगवती शक्ति द्वारा पराजित और निहत असुर का (देवताओं के शत्रु का) प्रतीक है ।

 

                 महाकाली और काली

 

महाकाली और काली एक ही नहीं । काली एक अवर (निम्न कोटि का) रूप है । उच्चतर भूमिकाओं में महाकाली सामान्यतया सुनहरे रंग में प्रकट होती हैं ।

        यह काली, श्यामा इत्यादि साधारण रूप हैं जो प्राण के द्वारा दिखायी देते हैं; महाकाली का सच्चा रूप, जिसका मूल अधिमानसलोक में है, काला या धूमिल या भयानक नहीं है बल्कि सुनहले रंग का है और असुरों के लिये भीषण होने पर भी सौन्दर्य से भरपूर हैं ।

 

१० - २ - ११३४

*

 

   आज प्रार्थना करते समय मुझे काली माता की मूर्ति दिखायी दी वह काले रंग की और नग्न थी और शिव की पीठ पर पैर रखे खड़ी थी - जैसा परम्परागत रूप से उसका वर्णन किया जाता है काली इस रूप में क्यों दिखायी देती हैं और किस स्तर पर वे ऐसी दिखायी देती हैं?

 

ऐसी वे प्राण के स्तर पर दिखायी देती हैं । यह है विनाशकारी शक्ति के रूप में काली -यह उस अज्ञान गत प्रकृति-शक्ति का प्रतीक है जो कठिनाइयों से घिरी होती है, उनसे पार होने के लिये अंध संघर्ष में प्रत्येक वस्तु को तोड़ती- मरोड़ती चली जाती है जबतक कि वह अपने को स्वयं भगवान् पर ही पैर रखे खड़ी नहीं पाती -तब वह अपने- आपे में आ जाती है और संघर्ष एवं विनाश समाप्त हो जाते हैं । यही है इस प्रतीक का अर्थ ।

 

१ - २ - ११३४

 

माताजी की महाकाली-शक्ति का कार्य

 

   '' माता '' पुस्तक के पृष्ट ५० पर माताजी की महाकाली- शक्ति के बारे में कहा गया है कि '' उनकी मुजाएं मारने और तारने को आगे बड़ी रहती हैं । '' यहां पर '' मारने '' का तात्पर्य क्या है?

५९ 


यह संसार में होनेवाली उनकी साधारण क्रिया को प्रकट करता है । वे असुरों पर प्रहार करती है,, वे ऐसी प्रत्येक चीज पर प्रहार करती हैं जिससे पिंड छुड़ाना है या जिसे नष्ट करना है, साधना की बाधाओं आदि पर भी प्रहार करती हैं । मैं कह सकता हूं कि माताजी कभी महाकाली-शक्ति या महाकाली का दबाव तुम पर प्रयुक्त नहीं करतीं ।

५-६-१९३६ 

*

 

  माताजी के महाकाली- रूप के विषय में ' माता ' पुस्तक में कहा गया है,  '' जब उन्हें अपनी सामर्थ्य के साथ कहीं भी दखल देने का अवसर मिलता है तब बे सब बाधाएं जो साधक को पंगु बना देती हैं एक क्षण में नि:सार पदार्थ के समान नष्ट हो जाती हैं और के सब शट्ट भी मृतप्राय हो जाते हैं जो साधक पर आक्रमण किया करते हैं । '' महाकाली- शक्ति के इस हस्तक्षेप का अनुभव किस रूप में होता है?

 

यह मानों किसी क्षिप्र, आकस्मिक, सुनिश्चित और अनिवार्य वस्तु के रूप में अनुभूत होता है । जब यह हस्तक्षेप करता है तब इसके पीछे एक प्रकार को भागवत या अतिमानसिक स्वीकृति होती है और यह एक अंतिम आज्ञा के  होता है जिसके विरुद्ध कोइ अपील नहीं चलती । जो कुछ किया जा चुका है वह न तो उलटा जा सकता है न मिटाया जा सकता है । विरोधी शक्तियां कोशिश कर सकती हैं, यहांतक कि छू सकती या चढ़ाई कर सकती हैं, पर घबराकर लौट जाती हैं और, ज्योंही वे पीछे हटती हैं । पुराना मैदान जैसा- तैसा सुरक्षित दिखायी पड़ता है - आक्रमण के समय भी यह अनुभव रहता है । वे कठिनाइयां भी जो इससे पहले प्रबल थीं, इस निर्णय के छू देने से अपनी शक्ति खो बैठती हैं । उनकी संभावना नष्ट हो जाती है अथवा वे दुर्बल छाया- सी रह जाती हैं जो केवल टिमटिमाने और बूझ जाने के लिये ही आती है । मैंने ऊपर ' अवसर मिलने ' की बात कही है । क्योंकि महाकाली की यह चरम क्रिया अपेक्षाकृत बहुत कम होती है । अन्य शक्तियों की किया या महाकाली की आशिक किया ही अधिक होती है ।

 

२४ - ८ - ११३३

६०


मित्र

 

हां, मित्र वास्तव में दो शक्तियों (महालक्ष्मी और महासरस्वती) का संयोग है |

 

महासरस्वती का स्पर्श

 

   वह कौन- सी प्रज्ञा है जो मानव- मस्तिष्क में अधिक गहरे वलयन- थ,' हृदय के प्रकोष्ठों में सर्वथा निर्दोष पट तथा रचना की ऐसी अन्य सूक्ष्मताएं लायी? क्या यह महासरस्वती का कार्य है?

 

हां -सूक्ष्मांश  की जटिलता की समस्त आता महासरस्वती के सर्प की द्योतक  है |

 

११ - १ - ११३३

 साधना की वर्तमान गतिविधि

 

   क्या यह सच है कि यहां हमारी साधना में अधिकतर श्रीमां का महा- सरस्वती- रूप ही कार्य करता है?

 

हां, इस समय, जब से साधना भौतिक चेतना के स्तर पर उतरी है तब से- या, यों कहना अधिक ठीक होगा कि यह महेश्वरी-महासरस्वती की शक्तियों का संयोग है ।

 

२४-८-१९३३

 

   ईश्वर की विभूतियों और श्रीमां की ' के बीच अभिव्यक्ति के रूप या अनुभव की से क्या अंतर है?

 

साधारणतया श्रीमां की विभूतियों नारीरूप होंगी और उनमें से अधिकांश धीमा के चार व्यक्तिरूपों में किसी एक के द्वारा अधिकृत होंगी । दूसरे, जिनका जिक्र 

एक बैद्रिक देवता |
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तुमने किया है, (ईसा, बुद्ध, चैतन्य, नेपोलियन । सीजर आदि ) ईश्वर के व्यक्ति- रूप और शक्तियां होंगे, पर सबकी तरह उनमें भी । श्रीमां को शक्ति कार्य करेगी । सारी सृष्टि और रूपांतर माताजी का ही काम है ।

 

 

*

२९ - १० - ११३५

   जब समस्त सृष्टि- कार्य उनका है तब क्या हम यह मान सकते हैं कि श्रीमां के व्यक्ति- रूप ही पर्द के पीछे से अवतार या विभूतियों के अवतरण के लिये उपयुक्त अवस्थाओं को तैयार करते है?

 

अगर तुम्हारा मतलब श्रीमां के दिव्य रूपों से हो तो उत्तर है '' हां '' । फिर यह भी कहा जा सकता हे कि प्रत्येक विभूति अपनी शक्ति इन चार शक्तियों से और अधिकतर उनमें से किसी एक से मुख्य रूप में लेती है, जैसे नेपोलियन महाकाली से, राम महालक्ष्मी से, आगस्टस सीजर महासरस्वती से शक्ति पाते थे ।

 

 ३१ - १० - ११३५

 

चित्-शक्ति, जीवात्मा, अन्तरात्मा और अहम्

 

चित्-शक्ति या भागवत चेतना स्वयं श्रीमां हैं -जीवात्मा उनका एक अंश है, चैत्य या अंतरात्मा उनकी एक चिनगारी है । अहम् चैत्य या जीवात्मा का एक विकृत प्रतिबिम्ब है । अगर तुम्हारे कहने का मतलब यही हो तो यह ठीक है ।

 

अंतरात्मा और भगवती माता

 

पृथ्वी पर आयी प्रत्येक अंतरात्मा के विषय में यह बात सत्य है कि वह भगवती माता का अंश है जो अज्ञान की अनुभूतियों में से गुजर रहा है जिसमें कि वह अपनी सत्ता के सत्य को प्राप्त करे और यहां एक दिव्य अभिव्यक्ति और कम का यंत्र बने ।

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परात्परा मां -एक मन्त्र

 

' इस मन्त्र के अँग्रेज़ी लिप्यन्तर में अन्तिम दो शब्द श्रीमाताजी ने जोड़े हैं क्योंकि

 

वे श्रीअरविन्द ने अपनी मूल लिपि में नहीं लिखे थे ।

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 श्रीमाताजी की ज्योतियां तथा दिव्य-दर्शन

 

श्रीमां की ज्योतियां

 

सभी ज्योतियों को श्रीमां स्वयं अपने अंदर से प्रकट करती हैं ।

 

ज्योति के अलग- अलग रूप

 

ज्योति एक साधारण शब्द है । ज्योति ज्ञान नहीं है । बल्कि वह एक आलोक है जो ऊपर से आता है और सत्ता को सब प्रकार के अंधकार से मुक्त करता है ।

  पर यह ज्योति नाना प्रकार के रूप भी ग्रहण करती है; जैसे, श्रीमां की सफेद ज्योति, श्रीअरविन्द की हल्की नीली ज्योति । सत्य की सुनहली ज्योति, चैत्य ज्योति (लाल और गुलाबी) इत्यादि ।

 

१३ - १० - ११३४

 

श्रीमां की सफेद ज्योति

 

ज्योतियां श्रीमां की शक्तियां हैं और संख्या में बहुत-सी हैं । सफेद ज्योति उनकी अपनी विशेष शक्ति है, मूल रूप में स्वयं भागवत चेतना को शक्ति है ।

 

१५ - ७ - ११३४

 

*

 सफेद ज्योति श्रीमां की ज्योति है और यह हमेशा उनके चारों ओर बनी रहती  है |

 

२२ - ८ - १९३३

 

हल्की नीली ज्योति मेरी है और सफेद ज्योति श्रीमाताजी की है (यह कभी- कभी सुनहली भी होती है) । साधारणतया लोग श्रीमां के चारों ओर सफेद या सफेद हल्की नीली ज्योति देखते हैं ।

 

४ - १ - ११३३

 

*

६४


सफेद ज्योति श्रीमां की ज्योति है । जहां कहीं वह उतरती है या प्रवेश करती है वहीं वह शांति, पवित्रता, निश्चल-नीरवता ले आती है और उच्चतर शक्तियों के प्रति उद्घाटित करती है । अगर वह नाभि-केन्द्र के नीचे आती है तो उसका यह अर्थ होता है कि वह निम्नतर प्राण में काय कर रही है ।

 

३१ - ७ - ११३४ 

 

*

 

महत्वपूर्ण अनुभव है हृदय में श्वेत किरण का अनुभव -क्योंकि वह श्रीमां की ज्योति, सफेद ज्योति की किरण है, और उस ज्योति के द्वारा हृदय का आलोकित हो जाना इस साधना के लिये एक बहुत शक्तिशाली चीज है । वह साधिका जो अंतर्ज्ञान की बात कहती है वह इस बात का द्योतक है कि उसके अंदर आंतर चेतना बइ रही है -वह चेतना बढ़ रही है जो योग के लिये आवश्यक है ।

 

२८ - ७ - ११३७

 

*

यह (धीमां की ज्योति) बराबर ही आंतर पुरुष के अंदर विद्यमान रहती है । 

 

*

 

उसका अर्थ है प्राण के अंदर दिव्य चेतना की ज्योति (श्रीमां की चेतना, सफेद ज्योति) । नीला रंग उच्चतर मन का है और सुनहला भागवत सत्य है । अतएव इसका मतलब है वह प्राण जिसमें उच्चतर मन और भागवत सत्य की ज्योति है और जो श्रीमां की ज्योति छिटका रहा है । 

 

*

जो कुछ तुमने सूक्ष्म दर्शन के रूप में देखा था वह श्रीमां का अतिभौतिक शरीर था जो संभवत: उनकी सफेद ज्योति से बना था । वह ज्योति भागवत चेतना और शक्ति को ज्योति है जो विश्व के परे विद्यमान है ।

३०-१-१९३५

 

*

 

  आज प्रणाम- गृह में ध्यान करते समय मैंने सूक्ष्म से एक परबत श्रेणी देखी जिससे सफेद ज्योति निकल रही थी 7 इसका तात्पर्य क्या है?

  किस लोक का   रविशंकर हैं ?

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मानसिक लोक का । पर्वत निम्न स्तर से उच्च स्तर में आरोहण सूचित करता है । सफेद ज्योति श्रीमां की ज्योति है, उच्चतर स्तरों से उतरनेवाली भागवत चेतना की ज्योति है ।

 

७ - ८ - ११३३

 

*

 

यह (सफेद कमल) श्रीमाताजी का, भागवत चेतना का फूल है ।

 

१५ - ४ - ११३३

 

*

 

   आज श्रीमाताजी ने जैसे ही प्रणाम- गृह में आसन ग्रहण किया वैसे ही मैंने देखा कि उनके दाएं और बाएं दोनों ओर सफेद ज्योति चमक रही है क्या मेरे इसे देखने का कोई विशेष कारण था?

 

नहीं; श्रीमाताजी के चारों ओर हमेशा ही सफेद ज्योति देखी जा सकती है; क्योंकि यह उन्हीं की ज्योति है और हमेशा उनके साथ रहती है ।

 

८ - ८ - ११३३

 

*

 

   कल शाम जब श्रीमां छत पर टहल रही थीं तब मुझे उनके शरीर पर एक ज्योति दिखायी दी वह क्या थी?

 

बहुत-से लोग श्रीमां के चारों ओर प्रकाश देखते हैं । वह प्रकाश वहां सदा ही रहता है ।

 

२६ - ७ - ११३३

 

 श्रीमाताजी का ज्योतिर्मण्डल

 

लोग श्रीमां के चारों ओर जो कुछ देखते हैं वह पहले तो उनका ज्योतिर्मण्डल होता है, जैसा कि उसे आजकल की भाषा में नाम दिया गया है, और दूसरे, वे सब ज्योति की शक्तियां होती हैं जो उनके ध्यान करने के समय उनसे बाहर निकलती हैं, उदाहरणार्थ छत के ऊपर, जहां वह हमेशा ही ध्यान किया करती हैं । (प्रत्येक मनुष्य का एक ज्योतिर्मण्डल होता है -पर अधिकांश लोगों में वह दुर्बल होता है और अधिक प्रकाशयुक्त नहीं होता श्रीमां का ज्योतिर्मण्डल

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ज्योतियों और शक्तियों की पूरी लीला होता है) । लोग उसे साधारणतया नहीं देखते । क्योंकि वह एक सूक्ष्म- भौतिक चीज है, कोई स्थूल जड़ व्यापार नहीं है । लोग उसे केवल दो अवस्थाओं में देख सकते हैं -एक तो, अगर वे पर्याप्त रूप में सूक्ष्म दृष्टि विकसित करें, या फिर स्वयं ज्योतिर्मण्डल ही इतना सदृश होना आरंभ कर दे कि वह उसे ढक रखनेवाले स्थूल जड़-तत्त्व के कोष पर भी प्रभाव डाल सके । निश्चय ही माताजी उसे लोगों को दिखाने का कोई विचार नहीं रखतीं - अपने- आप ही, एक के बाद एक, आश्रम के करीब २० या ३० आदमियों ने शायद उसे देखा है । निस्सन्देह यह इस बात का द्योतक है कि उच्चतर शक्ति (चाहे उसे अतिमानसिक कहो या न कहो) ने जड़-तत्त्व पर प्रभाव डालना आरंभ कर दिया है ।

 

१५ -११ १ - ११३३ 

 

*

 यदि श्रीमाताजी की ज्योति को देखना एक गलत बात हो या मन या प्राण की एक रचना हो तो भगवान् की उपलब्धि तथा सभी आध्यात्मिक अनुभूतियों पर मानसिक या प्राणिक रचना या भूल होने का संदेह किया जा सकता है और इस तरह सारा योग ही असंभव हो जाता है ।

 

६- १ - ११३३

 

 श्रीमां की हीरक-ज्योति

 

  (क) इस (हीरे की जैसी ज्योति) का अर्थ है श्रीमां की मूल शक्ति ।

  (ख ) हीरक-ज्योति भागवत चेतना के हृदय से निकलती है और जहां जाती है वहां भागवत चेतना की ओर उद्घाटन ले आती है ।

  (ग) श्रीमाताजी के हीरक-ज्योति के साथ उतरने का अर्थ हे तुम्हारे अंदर होनेवाली क्रिया को परात्पर शक्ति का अनुमोदन प्राप्त होना ।

  (घ) श्रीमां की हीरक-ज्योति पूर्ण पवित्रता और शक्ति-सामर्थ्य की ज्योति है । 

  (ड: ) हीरक-ज्योति भगवान् की केन्द्रीय चेतना और शक्ति है ।

 *

 

 हीरा श्रीमां की ज्योति और क्रियाशक्ति का सूचक है -हीरे की जैसी ज्योति

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अपने खूब घने रूप में उनकी चेतना की ज्योति है ।

 

१३-११-१९३६

 

 श्रीमां के महाकाली-रूप की सुनहली ज्योति

 

श्रीमां की ज्योति सफेद होती है-विशेषकर हीरे-जैसी सफेद । महाकाली का रूप साधारणतया सुनहला होता है, खूब उज्ज्वल और तीव्र सुनहला ।

 

१२-१०-११३५ 

 

*

सुनहली ज्योति भागवत सत्य की ज्योति है जो साधारण मन से ऊपर के उच्चतर लोकों में दिखायी देती है-यह मूलत: अतिमानसिक ज्योति है । यह मन से ऊपर दिखायी देनेवाली महाकाली की भी ज्योति है सफेद ज्योति की तरह सुनहली ज्योति भी प्रायः ही माताजी से निकलती हुई दिखायी देती है ।

१७-९-१९३३ 

*

   मैंने सुना है कि काली का रंग काला है और उनके चार हाथ है परंतु मैंने अपने अतंर्दर्शन में उनके केवल दो ही हाथ देखे और उनका रंग तेज सफेद था | मैंने उन्हें ऐसा क्यों देखा?

 

प्राणमय लोक में होनेवाली महाकाली की एक अभिव्यक्ति का रूप काला होता है-परंतु अधिमानस-लोक में स्वयं महाकाली सुनहली हैं । जिसे तुमने देखा था वह अपने ज्योतिर्मय शरीर में महाकाली-शक्ति को लिये हुई स्वयं श्रीमाताजी थीं, वह ठीक महाकाली का रूप नहीं था ।

 

. २६-१-११३३

 

*

  यह पीले रंग की आभा पर निर्भर करता है । यदि वह सुनहरा सफेद है तो वह मन से ऊपर के स्तर से आता है और रंगों का यह संयोग महेश्वरी-महाकाली की शक्ति का सूचक है । उच्चतर मन का रंग फीका नीला है ।

 

२१-३-१९३८

 

*

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  श्रीमाताजी के रूप और शक्तियां

 

'' माता '' पुस्तक में प्रयुक्त कुछ शब्दों की व्याख्या

 

१. मिध्यात्व और अज्ञान

 

अज्ञान का अर्थ है अविद्या, पृथगात्मिका चेतना और उससे प्रवाहित होने- वाला अहंकारपूर्ण मन और प्राण तथा वह सब कुछ जो पृथगात्मिका चेतना और अहंकारपूर्ण मन तथा प्राण के लिये स्वाभाविक है । यह अज्ञान उस क्रिया का परिणाम है जिसके द्वारा विश्वव्यापी बुद्धि-शक्ति ने अपने- आपको अतिमानस  (भागवत विज्ञान ) की ज्योति से पृथक् कर लिया और सत्य को -सत्ता के सत्य को, भागवत चेतना के सत्य को, शक्ति और क्रिया के सत्य को, आनन्द के सत्य को -खो दिया । उसका फल यह हुआ है कि भागवत विज्ञान की ज्योति में सृष्ट पूर्ण सत्य और दिव्य सामंजस्य के जगत् के स्थान पर हमने पाया है एक ऐसा जगत् जो एक निम्न कोटि की विश्वव्यापी बुद्धि-शक्ति के आशिक सत्यों पर प्रतिष्ठित है -उस बुद्धि-शक्ति के जिसमें सब कुछ अध- सत्य, अध-मिथ्या होता है । यही वह चीज है जिसे शंकर-जैसे कुछ प्राचीन दार्शनिकों ने । उसके पीछे विद्यमान महत्तर सत्यशक्ति (ऋत-चित् ) को बिना देखे, ' माया ' कह दिया और भगवान् की उच्चतम सर्जनात्मिका शक्ति मान लिया । इस सृष्टि की चेतना के अंदर सब कुछ या तो सीमित होता है अथवा त ज्योति से पृथक् होने के कारण विकृत होता है; यहांतक कि जिस सत्य को वह चेतना देखती है वह केवल अर्ध-ज्ञान होता हे । इसीलिये उसे कहा जाता है अज्ञान ।

 

  दूसरी ओर, मिथ्यात्व ठीक यह अविद्या ही नहीं, बल्कि उसका एक चरम परिणाम है । इसकी सृष्टि होती है एक आसुरिक शक्ति के द्वारा जो इस सृष्टि में हस्तक्षेप करती है और जो केवल सत्य से पृथक् ही नहीं हुई है और इस कारण ज्ञान में सीमित और भ्रांति की ओर उद्घाटित ही नहीं, बल्कि सत्य के विरुद्ध विद्रोह किये हुई है अथवा सत्य को केवल विकृत करने के लिये ही उसे पकड़ने की आदी है । यह शक्ति, यह काली आसुरिक शक्ति या राजसी माया अपनी निजी विकृत चेतना को सच्चे ज्ञान के रूप में और अपनी जान-

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बूझकर की हुई सत्य की विकृतियों या उससे एकदम उलटी चीजों को वस्तुओं के सत्य के रूप में सामने रखती है । इसी विकृत और विकृतिकारिणी चेतना की शक्तियों और व्यक्तिरूपों को हम विरोधी सत्ताएं । विरोधी शक्तियां कहते हैं । जब कभी ये शक्तियों अज्ञान के सत्त्व के द्वारा विकृतियों की सृष्टि करती और उन्हें वस्तुओं के सत्य के रूप में सामने रखती हैं तब उन्हीं को हम । यैागिक अथ में, ' मिथ्या ', ' मोह ' कहते हैं ।

 

२. शक्तियां और आकृतीयां

   ये सब वे शक्तियां और सत्ताएं हैं जो अज्ञान के जगत् में अपने ही द्वारा उत्पन्न की हुई मिथ्या चीजों को बनाये रखने में तथा उन्हें सत्य के रूप में, जिसका अनुसरण मनुष्यों को करना ही होगा । सामने रखने मैं दिलचस्पी रखती हैं । भारत में उन्हें कहा जाता है असुर, राक्षस, पिशाच (क्रमश: मनोमय प्राणलोक, मध्य-प्राणलोक ओर निम्न प्राणलोक की सत्ताएं) जो ज्योति की शक्तियों, देवताओं के विरोधी होते हैं । ये हैं शक्तियां ही, क्योंकि इनका भी विश्व के अंदर अपना क्षेत्र होता है जिसके अंदर ये अपनी क्रिया और अधिकार का प्रयोग करती हैं और इनमें से कुछ एक समय दिव्य शक्तियां थी ' पूर्व देवा: ' । (जैसे कि महाभारत में कहीं पर इन्हें नाम दिया गया है । ) जो विश्वब्रह्माण्ड के पीछे विद्यमान भागवत संकल्प-शक्ति के विरुद्ध विद्रोह करने के कारण अंधकार में गिर गयी हैं । ' आकृतियां ' शब्द उन रूपों को सूचित करता है जिन्हें ये जगत् पर शासन करने के लिये ग्रहण करती हैं और जो अधिकांश में झूठे होते हैं और बराबर ही मिथ्यात्व को प्रकट करनेवाले तथा कभी-कभी झूठा दिव्य त्व लिये हुए होते ?

 

३. शक्तियां और व्यक्तित्व

  'शक्ति' (power) शब्द के व्यवहार की बात समझायी जा चुकी है -जो कोई चीज या जो कोई व्यक्ति विश्व-क्षेत्र में सचेतन रूप से शक्ति का प्रयोग करे और जिसे संसार की गति के ऊपर या उसकी किसी विशिष्ट क्रिया के ऊपर अधिकार हो, उसके लिये इस शब्द का प्रयोग किया जा सकता है । परंतु जिन चार ' की बात तुम कहते हो वे भी शक्तियां हैं । परम दिव्य चेतना और शक्ति की, भगवती माता की विभिन्न शक्तियों की अभिव्यक्तियां हैं । जिनके द्वारा

 

  ' महेश्वरी, महाकाली । महालक्ष्मी और महासरस्वती !

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वह विश्व पर शासन करती और यहां कार्य करती हैं । और फिर साथ ही वे दिव्य व्यक्ति-स्वरूप भी हैं, क्योंकि उनमें से प्रत्येक एक सत्ता है -जो परम देव के विभिन्न गुणों को तथा व्यक्तिगत चैतन्य -रूपों को अभिव्यक्त करती है । इस तरह सभी बड़े -बड़े देवतागण भगवान् के व्यक्तिस्वरूप है -एक ही चेतना बहुत-से व्यक्तिरूपों में लीला करती है, ' एकं सत् बहुधा ' । मनुष्यों के भीतर भी बहुत-से व्यक्ति-रूप होते हैं, केवल एक ही रूप नहीं होता । जैसा कि पहले लोग कल्पना किया करते थे । क्योंकि सभी चेतनाएं एक साथ ही ' एक ' और  ' बहु ' दोनों हो सकती हैं । ''शक्तियां और व्यक्ति-स्वरूप '' एक ही सत्ता के विभिन्न रूपों को सूचित करते हैं । यह जरूरी नहीं है कि शक्ति निवैयक्तिक ही हो और निश्चय ही वह तुम्हारे संकेत के अनुसार ' अव्यक्तम् ' तो हर्गिज नहीं होती -उसके विपरीत,  यह एक व्यक्त रूप है जो भागवत अभिव्यक्ति के जगतों में काय करता है ।

 

अंश-विभूतियां

 

   तुम्हारे पत्र में वर्णित 'मातृकाएं ' अंश-विभूतियों (Emanations) के साथ मिलती-जुलती हैं । श्रीमां की अंशविभूति उनकी चेतना और शक्ति का कुछ अंश है जिसे वे अपने भीतर से प्रकट करती हैं और जो, जबतक कि वह लीला के अंदर हैं, उनके साथ घनिष्ठ रूप में जूड़ा होता है और जब उसकी लीला की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती तब अपने मूल उद्गम के अंदर वापस खींच लिया जाता है, पर जो हमेशा प्रकट किया जा सकता है और लीला में लाया जा सकता है । परंतु संपर्क को बनाये रखनेवाला धागा काटा या खोला भी जा सकता है और जो चीज एक अंशविभूति के रूप में प्रकट हुई थी वह एक स्वतंत्र दिव्य सत्ता के रूप में अपने ढंग से काम कर सकती है और जगत् में अपनी निजी लीला चरितार्थ कर सकती है । सभी देवता इस तरह की अंशविभूतियां अपनी सत्ता में से उत्पन्न कर सकते हैं जो तत्त्वत: चेतना और शक्ति में उनसे मिलती-जुलती हैं यद्यपि एकदम एकसमान नहीं होतीं । एक विशेष अर्थ में स्वयं विश्व को भी परात्पर भगवान् से पैदा हुई एक अंशविभूति कह सकते हैं । साधक की चेतना में श्रीमां को अंशविभूति साधारणतया वही रूप, आकार और स्वभाव ग्रहण करती है जिससे वह परिचित होता है ।

   एक अर्थ में श्रीमां की चारों शक्तियां, अपने मूलस्रोत के कारण, उनकी अंशविभूतियां कही जा सकती हैं, ठीक जैसे कि देवताओं को ' भगवान् ' की अंशविभूतियां कह सकते हैं !परंतु उनका रवभाव एवं रवरूप देवताओं की  

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अपेक्षा अधिक स्थायी और सुनिश्चित होता है । वे स्वतंत्र सत्ताएं हैं जिन्हें आद्या-शक्ति ने अपनी- अपनी लीला करने की छूट दे रखी है और साथ ही, माताजी के -महाशक्ति के - अंश भी हैं । धीमां चाहें तो बराबर ही उनके द्वारा पृथक्-पृथक् सत्ताओं के रूप में प्रकट हो सकती हैं अथवा उन्हें अपने ही विभिन्न व्यक्तित्वों के रूप में एक साथ खींच सकती हैं और अपने अंदर धारण कर सकती हैं । वे चाहें तो उन्हें पीछे हटाये रखें और चाहें तो लीला करने दें । यह उनकी इच्छा है । अतिमानस स्तर पर वे श्रीमां के अंदर ही रहती हैं और स्वतंत्र रूप में कार्य नहीं करतीं बल्कि अतिमानसिक महाशक्ति के घनिष्ठ अंशों के रूप में कार्य करती हैं और एक दूसरे के साथ घना एकत्व और सामंजस्य बनाये रखती हैं ।

 . देवता

    ये चार शक्तियां श्रीमां की वैश्व दिव्य-शक्तियां हैं जो जगत्-लीला में स्थायी रूप से रहती हैं; इनकी गणना उन महत्तर विश्व-देवताओं के अंदर होती है जिनको लक्ष्य करके ही यह कहा गया है कि इस त्रिविध जगत् की महाशक्ति के रूप में माताजी वहां (अधिमानस-लोक में ) '' देवताओं से ऊपर अधिष्ठान करती हैं । '' देवतागण, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, मूलत: और तत्त्वत: भगवान् की स्थायी अंशविभूतियां हैं जिन्हें परात्परा माता ने, आद्याशक्ति ने परात्पर भगवान् के अंदर से उत्पन्न किया है; अपनी विश्व क्रियाओं में वे भगवान् की शक्तियां और व्यक्तिस्वरूप हैं और उनमें से प्रत्येक का विश्व के अंदर अपना स्वतंत्र स्थान, स्वभाव और कम है । वे निर्वयक्तिक -निराकार सत्ताएं नहीं हैं बल्कि वैश्व व्यक्ति हैं, यद्यपि साधारणतया वे निवैंयक्तिक शक्तियों की क्रिया के पीछे अपने को छिपा सकते हैं और छिपाते भी हैं । परंतु एक ओर जहां अधिमानस लोक में और इस त्रिविध जगत् में वे स्वतंत्र सत्ताओं के रूप में दिखायी देते हैं वहां दूसरी ओर वे अतिमानस-लोक में ' एकमेवाद्वितीयम्' के अंदर वापस चले जाते हैं और वहां वे केवल एक सुसमंजस कार्य के अंदर युक्त होकर एक ही ' व्यक्ति ' के । दिव्य पुरुषोत्तम के बहुविध व्यक्ति-स्वरूपों के रूप में विद्यमान रहते हैं ।

 

६. उपस्थिति (presence)

   उपस्थिति (presence) शब्द से यह सूचित करना अभीष्ट है कि भगवान् का एक 'पुरुष' के रूप में संवेदन एवं प्रत्यक्ष अनुभव होता हैं, यह अनुभव   

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होता है कि वह ' पुरुष ' व्यक्ति की सत्ता एवं चेतना में उपस्थित है या उसके साथ उसका संबंध है और उसकी कोई, और विशेषता बतलाने या उसका वर्णन करने की आवश्यकता नहीं । इस प्रकार, '' अनिर्वचनीय उपस्थिति'' के विषय में केवल यही कहा जा सकता है कि यह वहां है और इससे अधिक न कुछ कहा जा सकता है, न कहने की आवश्यकता है । यद्यपि इसके साथ ही व्यक्ति जानता होता है कि सब कुछ वहां है, व्यक्तित्व और निर्वैयक्तिकता, । शक्ति और ज्योति और आनंद तथा और सब कुछ भी , और कि ये सभी उसी अवर्णनीय उपस्थिति से प्रवाहित होते हैं । यह शब्द कभी-कभी कम निरपेक्ष अर्थ में प्रयुक्त हो सकता है, पर मूल तात्पर्य सदा यही होता है, - अन्य प्रत्येक वस्तु को आश्रय देनेवाली सारभूत उपस्थिति का वास्तविक प्रत्यक्ष ।

 

परात्परा मां

 

यही हैं जिन्हें आद्या शक्ति का नाम दिया गया है; ये विश्वातीत परम चेतना और शक्ति हैं और इन्हें से सब देवता उत्पन्न हुए हैं, यहांतक कि अतिमानसिक ईश्वर भी -वह विज्ञानमय पुरुषोत्तम भी जिनकी शक्तियां और व्यक्ति-रूप देवता- गण हैं -इन्हें के द्वारा अभिव्यक्ति में आते हैं ।

 

आद्या शक्ति

 

आद्या शक्ति मूल शक्ति है और इसलिये श्रीमां का सबसे ऊंचा रूप है । वे देखनेवाले के स्तर के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती हैं ।

२२ - ७ - ११३३

 

भगवती माता

भगवती माता भगवान् की चित्-शक्ति हैं -जो समस्त वस्तुओं की जननी हैं ।

 

श्रीमां और ईश्वर

 

श्रीमां भगवान् की चेतना और शक्ति हैं - अथवा, यह कहा जा सकता है कि वे चिच्छक्ति-रूप में स्वयं भगवान ही हैं । विश्व के स्वामी के रूप में ईश्वर

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श्रीमां के अंदर से प्रकट होते हैं और श्रीमां उनकी बगल में विश्व-शक्ति के रूप में अपना स्थान ग्रहण करती हैं -विराट् ईश्वर भगवान् का एक रूप हैं ।

 

गीता, तन्त्र और पूर्णयोग में भगवती माता

 

गीता स्पष्ट रूप में भगवती माता की बात नहीं कहती; वह बराबर ही पुरुषोत्तम को आत्मसमर्पण करने के लिये कहती है -वह भगवती माता का जिक्र केवल परा प्रकृति के रूप में करती है जो जीव बनती है -' जीवभूता ', अर्थात् जो भगवान् को ' बहु' के अंदर अभिव्यक्त करती है और जिसकी सहायता से परात्पर प्रभु ने इन सब जगतों की सृष्टि की है तथा वे स्वयं अवतार के रूप में उतरते हैं । गीता वैदान्तिक परम्परा का अनुसरण करती है जो पूरी तरह से भगवान् के ईश्वर-स्वरूप पर जोर देती है और भगवती माता की बात बहुत कम करती है, क्योंकि उसका उद्देश्य है जगत्-प्रकृति से पीछे हट जाना और उसके परे जाकर चरम उपलब्धि प्राप्त करना; तान्त्रिक परम्परा शक्ति या ईश्वरी रूप पर अधिक जोर देती

है और सबको भगवती माता पर ही निर्भर रहने को बाध्य करती है, क्योंकि उसका उद्देश्य है विश्व-प्रकृति को वश में करना और उस पर शासन करना तथा उसी के द्वारा उपलब्धि प्राप्त करना । यह योग इन दोनों पर जोर देता है; भगवती माता के प्रति आत्मसमर्पण करना आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना इस योग का उद्देश्य ही सिद्ध नहीं हो सकता ।

   पुरुषोत्तम के सम्पर्क में भगवती माता जागतों से ऊपर की परात्परा दिव्य चेतना और शक्ति, आद्या शक्ति हैं; वह परात्पर को अपने अंदर धारण करती हैं और अक्षर और क्षर के द्वारा भगवान् को विभिन्न जगतों में अभिव्यक्त करती हैं । अक्षर के सम्पर्क में वे वही परा शक्ति हैं जो समस्त सृष्टि के पीछे अपने अंदर पुरुष को निष्क्रिय-निश्चल रूप में धारण करती हैं और स्वयं भी उसके अंदर स्थिर -निश्चल रहती हैं । क्षर के संपर्क में वे सचल विश्व-शक्ति हैं जो सभी सत्ताओं और शक्तियों को प्रकट करती हैं । 

 

*

 

श्रीमां के विषय में यह अनुभूति कि वे ही परात्पर तत्त्व हैं, एक तांत्रिक अनुभूति है-यह सत्य का एक पक्ष है ।

 

*

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    तान्त्रिक अपनी साधना में शक्ति का आवाहन किया करते थे! क्या वह वही शक्ति और चेतना थी जो यहां माताजी में है?

 

यह इस पर निर्भर करता है कि वे किस शक्ति का आवाहन करते थे - सामान्यतया वे श्रीमाताजी के किसी रूप को ही पुकारा करते थे ।

 

 जगज्जननी

 

ईश्वरी शक्ति । दिव्य चिच्छक्ति और जगज्जननी शाश्वत ' एक ' और अभिव्यक्त  ' बहु ' के बीच मध्यस्था बन जाती हैं । एक ओर, जिन शक्तियों को वे ' एक ' के भीतर से ले आती हैं उनके खेल के द्वारा वे विश्व के अंदर बहुविध भगवान् को प्रकट करती हैं और अपने प्रकट करनेवाले पदार्थ के भीतर से उस ' बहु ' के अनंत रूपों को भीतर गठित और बाहर विकसित करती हैं । दूसरी ओर । उन्हीं शक्तियों की पुन: - आरोहणकारी धारा के द्वारा वे सबको ' उस ' की ओर वापस ले जाती हैं जिससे वे इसलिये उत्पन्न हुए हैं कि अंतरात्मा अपनी विकसनशील अभिव्यक्ति के अंदर अधिकाधिक या तो वहां विद्यमान भगवान् की ओर वापस जा सके अथवा यहां अपने दिव्य स्वभाव को धारण कर सके । उनके अंदर किसी निश्चेतन यन्त्रस्वरूप कायकारिणी शक्ति का स्वभाव नहीं है जिसे हम प्रकृति के प्रथम बाह्य स्वरूप -प्रकृति-शक्ति के अंदर पाते हैं । यद्यपि वह एक विश्वव्यापी यंत्र की रचना करती है; और न वहां असत् का भ्रम या अर्ध- भ्रम की जननी का वह बोध है जो मायासंबंधी हमारे पहले दृष्टिकोण के साथ लगा रहता है । अनुभव करनेवाले जीव के सामने यह तुरत प्रकट हो जाता है कि यहां एक सचेतन शक्ति है जो सत्त्व और प्रकृति में उन परात्पर के साथ एक है जिनसे कि वह उत्पन्न हुई थी । अगर हमें ऐसा मालूम होता है कि उसने हमें अज्ञान और निश्चेतन के अंदर डूबा दिया है और डूबा दिया है एक ऐसी योजना का अनुसरण करने के लिये जिसकी हम अभी कोई व्याख्या नहीं दे सकते । अगर उसकी शक्तियां विश्व की इन सब अस्पष्ट शक्तियों के रूप में हमारे सामने प्रकट होती हैं । तो भी बहुत शीघ्र यह दिखायी पंड जाता है कि वह हमारे अंदर भागवत चेतना का विकास करने के लिये कार्य कर रही है और वह ऊपर खड़ी होकर हमें अपनी निजी उच्चतर सत्ता की ओर खींच रही है, हमारे सामने अधिकाधिक भागवत ज्ञान । संकल्पशक्ति और आनंद का सार- तत् रब प्रकट कर रही हैं!   यहांतक की अज्ञान के अंदर भी जिज्ञासु

 

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का अंतरात्मा उसके उस सज्ञान पथप्रदर्शन के विषय में सचेतन होता है जो उसके पगों को संभालता है और उन्हें धीरे - धीरे या शीघ्रता से, सीधे या बहुतेरे टेढे-मेढे रास्तों से अंधकार से बाहर निकालकर एक महत्तर चेतना के प्रकाश में, मृत्यु से बाहर निकालकर अमरता में । अशुभ और दुःख-कष्ट से बाहर निकालकर उच्चतम शुभ और आनंद में ले जाता है जिसके केवल एक क्षीण रूप की कल्पना उसका मानव मन अभी कर सकता है । इस तरह उसकी शक्ति एक साथ ही मुक्तिदायिनी और क्रियाशील । सृष्टिक्षम, फलोत्पादिका होती है - केवल ऐसी चीजों की सृष्टि करने में समर्थ नहीं होती जैसी कि अभी है, बल्कि ऐसी चीजों की सृष्टि करने में भी समर्थ होती है जो होनेवाली हैं; क्योंकि अज्ञान के तत्त्व से बनी हुई साधक की निम्नतर चेतना की ऐंठी और उलझी हुई क्रियाओं को दूर कर वह उसके अंतरात्मा और प्रकृति को एक उच्चतर दिव्य प्रकृति के सत्त्व और शक्तियों के द्वारा फिर से गढ़ती और नया रूप देती है । '

 

श्रीमां और निम्न-प्रकृति

 

श्रीमां को निम्नतर प्रकृति और उसके शक्ति-समूह के साथ एक समझना भूल है । यहां प्रकृति केवल एक मशीन है जो विकसनशील अज्ञान की क्रिया के लिये उत्पन्न की गयी है । जिस तरह अज्ञ मनोमय । प्राणमय या अन्नमय सत्ता स्वयं भगवान् नहीं है, यद्यपि वह आती भगवान् से ही है -वैसे ही प्रकृति-रूपी यन्त्र भगवती माता नहीं है । निस्सन्देह इस यन्त्र के अंदर और पीछे भगवती माता का कुछ अंश वर्तमान है जो क्रमविकास को सिद्ध करने के लिये इसे बनाये रखता है; पर स्वयं श्रीमां अविद्या की शक्ति नहीं हैं, बल्कि भागवत चेतना, शक्ति । ज्योति हैं, परा प्रकृति हैं जिनकी ओर हम मुक्ति और दिव्य परिपूर्णता के लिये मुड़ते हैं ।

 

      अज्ञान की विश्वव्यापी शक्ति और भगवती माता

 

इसमें इतना-सा सत्य है कि विश्वशक्ति प्रत्येक चीज को कार्यान्वित करती है और विश्वव्यापी आत्मा (विराf पुरुष) उसके कार्य को धारण करता है । विश्व-

 

'' योग-समन्वय ' '- से

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शक्ति एक ऐसी शक्ति है जो अज्ञान की शतों के अधीन काय करती हे -यह निम्नतर प्रकृति के रूप में दीख पड़ती है और निम्नतर प्रकृति तुमसे गलत काम कराती है । भगवान् इन सब शक्तियों का खेल तबतक होने देते हैं जबतक तुम स्वयं कोई और अच्छी चीज नही चाहते । पर तुम यदि साधक हो तो तुम निम्नतर प्रकृति के खेल को स्वीकार नहीं करते, उसके बदले भगवती माता की ओर मुड़ते हो, और निम्नतर प्रकृति के बदले उनसे अपने द्वारा कार्य करने के लिये कहते हो । जब तुम अपनी सत्ता के प्रत्येक भाग में पूर्ण रूप से भगवती माता की ओर और एकमात्र उन्हीं की ओर मुंड जाते हो, केवल तभी भगवान् तुम्हारे द्वारा सभी कमी को करते हैं ।

 

सगुण और निर्गुण ईश्वर और श्रीमां

 

निर्गुण और सगुण केवल अलग- अलग रूप हैं जिन्हें भगवान् अभिव्यक्ति के अंदर ग्रहण करते हैं । श्रीमां ही सगुण या निर्गुण ईश्वर को अभिव्यक्त करती हैं  (सृष्टि और कुछ नहीं, केवल अभिव्यक्ति है ) ।

 

२८ - ६- ११३३

 

शांत आत्मा, सक्रिय ब्रह्म और श्रीमां

 

वे अतुभूतियां बिलकुल ठीक थीं -परंतु वे भागवत सत्य के केवल एक ही पक्ष को दे रही हैं, उस पक्ष को दे रही हैं जिसे मनुष्य उच्चतर मन के द्वारा प्राप्त करता है -दूसरा पक्ष भी है जिसे मनुष्य हृदय के द्वारा प्राप्त करता है । उच्चतर मन से ऊपर ये दोनों सत्य एक हो जाते है, । अगर कोई ऊपर शांत आत्मा को प्राप्त करे तो इसमें कोई खतरा नहीं है, परंतु साथ ही उससे कोई रूपांतर भी नहीं होता, केवल मोक्ष, निर्वाण प्राप्त होता है । अगर कोई विश्वात्मा को । सशक्त और सक्रिय रूप में, प्राप्त करे तो वह सबको आत्मा के रूप में, सबको स्वयं अपने रूप में । उस आत्मा को भगवान् के रूप में अनुभव करता है इत्यादि । यह सब सत्य है; परंतु खतरा इस बात का है कि वहां जो यह भाव है कि '' सब कुछ स्वयं मैं हूं '' उसमें ' मैं ' को कहीं अहंकार अपने चंगुल में न ले ले । क्योंकि यह ' में-पन ' मेरा व्यक्तिगत आत्मा नहीं है, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का आत्मा है और साथ ही मेरा भी है । ऐसे किसी खतरे से छुट्टी पाने का उपाय यह है कि हम बात को याद रखों कि ये भगबन् 'माता' भी

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हैं । व्यक्तिगत ' मैं ' उन मां की संतान है जिनके साथ मैं एक हूं । फिर भी उनसे भिन्न हूं, उनका बालक, सेवक । यन्त्र हूं । मैं कह चुका हूं कि तुम्हें आत्मा को विश्व-चेतना के रूप में अनुभव करना बंद नहीं करना चाहिये, बल्कि उसके साथ-साथ यह याद रखना चाहिये कि सब कुछ श्रीमां ही हैं ।

*

 

यह संभव है कि ' एकमेवाद्वितीय ' में लय को प्राप्त होने की अनुभूति से आरंभ करके मनुष्य ज्ञान की ओर अग्रसर हो । पर शर्त यह है कि वह वहीं पर रुक न जाये । उसे ही उच्चतम सत्य न समझ बैठे । बल्कि उसी ' एक ' को परात्पर मां । सनातन भगवान् की चिच्छक्ति, के रूप में उपलब्ध करने के लिये आगे बढ़े । अगर दूसरी ओर, तुम परात्परा मां के द्वारा आगे बढ़ो तो वे तुम्हें निश्चल-नीरव ' एक ' के अंदर प्राप्त मुक्ति भी प्रदान करेंगी तथा साथ ही सक्रिय ' एकमेवाद्वितीय ' की अनुभूति भी देंगी । और फिर उस सत्य को प्राप्त करना आसान हो जायेगा जिसमें वे दोनों एक और अविच्छेद्य हैं । उसके साथ- ही-साथ परात्पर भगवान् और उसकी अभिव्यक्ति के बीच जिस खाई को मन तैयार किये हुए है, वह भी पट जाती है और फिर उसके बाद सत्य के अंदर कोई ऐसी दरार नहीं रह जाती जो हर चीज को दुबोध बना दे ।

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वास्तव में भगवान् ही प्रभु हैं - आत्मा तो निफिय होता है, वह बराबर ही सब वस्तुओं को सहारा देनेवाला निश्चल-नीरव साक्षी होता है -वही स्थाणु । अचल भाव है । एक सक्रिय भाव भी है जिसके द्वारा भगवान् कार्य करते हैं -उसी के पीछे श्रीमां विद्यमान हैं । तुम्हें इस बात को आंख से ओझल नहीं होने देना चाहिये कि श्रीमां के द्वारा ही सब चीजें प्राप्त होती हैं ।

१ -१ - ११३३

 

*

तुम परम आत्मा का साक्षात्कार प्राप्त करने के लिये यत्न कर रहे हो -पर वह आत्मा यदि माताजी का आत्मा नहीं तो क्या है? और कोई आत्मा है ही नहीं ।

 

२१ - १ - ११३४

 

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परम आत्मा के दो पक्ष हैं निष्क्रय और सक्रिय । पहले के अनुसार वह शुद्ध नीरवता, विशालता और स्थिरता है, निष्क्रय ब्रह्म है, दूसरे के अनुसार वह है विराट् आत्मा, वैश्व न कि व्यक्तिगत । उसमें व्यक्ति माताजी के साथ सायुज्य या एकत्व अनुभव कर सकता है । घनिष्ठता व्यक्ति-गत भाव है, अतः वह चैत्य पुरुष का भाव है ।

 

१८ - १० - ११३४

 माताजी की विश्वगत और उपरिथाती

 

 

माताजी के निराकार स्वरूप से लोगों का क्या अभिप्राय होता है ?-साधारणतया उनका अभिप्राय उनके वै छ रूप से होता है । जब उनका यों अनुभव होता है कि वे एक ऐसी वैश्व सत्ता एवं शक्ति हैं जो सारे विश्व में फैली हुई है और जिसमें तथा जिसके सहारे सभी रहते-सहते हैं तो वह उनका यही विश्वगत रूप होता है । जब कोई उस '' उपस्थिति '' को अनुभव करता है तो वह निःसीम वैश्व शांति । ज्योति, शक्ति और आनंद अनुभव करने लगता है -यही है माताजी का  ' स्वरूप ' । इस स्वरूप का साक्षात्कार व्यक्ति को बारंबार तभी होता है जब वह सिर से ऊपर की चेतना में आरोहण करता है जहां वह इस सीमाबद्ध देह- चेतना से युक्त होकर अपने- आपको भी एक विशाल एवं स्थिर सत्ता अनुभव करता है । अपने को सर्वभूतों के साथ एकात्मा अनुभव करता है-शाश्वत शांति में प्रतिष्ठित तथा आवेग एवं विक्षोभ से मुक्त । पर इसका अनुभव हृदय के द्वारा भी प्राप्त हो सकता है -तब हृदय भी अपने को जगत् के समान विशाल, शुद्ध एवं आनंदपूर्ण तथा माताजी की उपस्थिति से परिपूरित अनुभव करता है । हृदय में माताजी की व्यक्तिगत और व्यष्टि गत उपस्थिति भी है जो सीधे ही प्रेम और भक्ति पैदा करती है तथा अंतरंग घनिष्ठता एवं व्यक्तिगत एकता की अनुभूति प्रदान करती है ।

 

१ - ६ - १९३५

 

भागवत शक्ति में श्रद्धा हमारी सामर्थ्य के पीछे सदा ही रहनी चाहिये और जब शक्ति प्रकट हो जाये तो श्रद्धा असंदिग्ध और च होनी या बन जानी चाहिये । ऐसी कोई चीज नहीं जो उसके लिये असंभव हो क्योंकि वह एक चिन्मय शक्ति तथा विराट् भगवती है जो सनातन काल से सबका सृजन करनेवाली जननी है तथा परमात्मा की सर्वशक्तिमत्ता से सुसंपत्र है । संपूर्ण ज्ञान, समस्त शक्तियां,

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समस्त सफलता और विजय । समस्त कौशल और कर्म-कलाप उसी के हाथों में हैं और वह परम आत्मा के ऐश्वर्यों तथा समस्त पूर्णताओं एवं सिद्धियों से परिपूर्ण है । वह महेश्वरी अर्थात् परम ज्ञान की देवी हे, और सब प्रकार के सत्यों के लिये तथा सत्य के सभी विशाल रूपों के लिये अपनी अंतर्दृष्टि हमें प्राप्त कराती है । हमारे अंदर अपनी आध्यात्मिक संकल्प-संबंधी यथार्थता । अपनी अतिमानसिक विशालता की शांति और संवेगशीलता तथा अपना ज्योतिर्मय आनंद लाती है; वह महाकाली अर्थात् परम शक्ति की देवी है । और समस्त शक्तियां, आत्मबल, तपस् की उग्रतम कठोरता । संग्राम का वेग, विजय और अट्टहास्य उसी के अंदर विद्यमान हैं, अट्टहास्य ऐसा जो कि पराजय और मृत्यु को तथा अज्ञान की शक्तियों को तृणवत् समझता है : वह महालक्ष्मी है । परम प्रेम और आनंद की देवी है, ओर उसकी देनें हैं आत्मा की सुषमा । आनंद की मोहकता और सुन्दरता, अभयदान और प्रत्येक प्रकार का दैवी एवं मानवीय वरदान : वह महासरस्वती है, दिव्य कौशल की तथा परम आत्मा के सब क्यों की अधिष्ठात्री देवी है, और जिस योग को कर्म-कौशल, ' योग : कर्मसु कौशलम्' कहा जाता है वह महासरस्वती का ही हे । इसी प्रकार दिव्य ज्ञान के नाना उपयोग, आत्मा का अपने- आपको जीवन के क्षेत्र में प्रयुक्त करना और उसकी समस्वरताओं का आनंद महासरस्वती के ही गुण और काय हैं । अपनी सभी शक्तियों और अपने सभी रूपों में वह सनातन ईश्वरी के प्रभुत्व की परमोच्च भावना को अपने संग रखती है; साथ ही, किसी यंत्र से जिन कार्य के की मांग की जा सकती है उन सब प्रकार के कार्यों के लिये तीव्र और दिव्य सामर्थ्य । सर्वभूतों की सभी शक्तियों के साथ एकता, सहानुभूति एवं सुख-दुःख-सहभागिता । मुक्त तदात्मता, और अतएव विश्व में कार्य कर रहे समस्त दिव्य संकल्प के साथ स्वयंस्कूर्त एवं फलप्रद सामंजस्य -इन सब गुणों को भी वह अपने संग रखती है । उसके सान्निध्य और उसकी शक्तियों का घनिष्ठ अनुभव, और हमारे भीतर और चारों ओर उसकी जो क्रियाएं हो रही हैं उनके प्रति हमारी संपूर्ण सत्ता की संतुष्ट स्वीकृति -यह भागवत शक्ति में श्रद्धा की चरम पूर्णता है । और उसके पीछे है ईश्वर; ओर उसमें विश्वास पूर्णयोग की श्रद्धा का सबसे प्रधान अंग है । हमें अपने अंदर यह श्रद्धा धारण और पूर्णतया विकसित करनी चाहिये कि यहां का सभी कुछ परम आत्मज्ञान और प्रज्ञा की उन क्रियाओं का परिणाम है जो विश्व की विराट् परिस्थितियों में घटित होती हैं । हमारे अंदर या चारों ओर जो कुछ भी होता है उसमें ऐसा कुछ भी नहीं या जिसका अपना नियत रथान एवं समुचित अर्थ न

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हो,जब ईश्वर हमारे परमोच्च 'पुरुष'  एवं आत्मा के रूप में हमारे कार्यों को अपने हाथ में ले लेते हैं तब सभी कुछ संभव हो जाता है और जो कुछ वे पहले कर चुके हैं तथा जो कुछ वे भविष्य में करेंगे वह सब उनके निर्भरता एवं पूर्वदर्शी मार्गनिर्देश का अंग था और होगा, साथ ही यह हमारे योग की सफलता, हमारी पूर्णता एवं हमारे जीवन-कार्य के लिये भी अभिप्रेत था और होगा । जैसे-जैसे उच्चतर ज्ञान का द्वार खुलेगा, यह श्रद्धा अधिकाधिक सार्थक सिद्ध होती जायेगी, जो बड़े एवं छोटे मर्म हमारे संकुचित मन की दृष्टि से परे थे उन्हें हम अब देखने लगेंगे और तब श्रद्धा ज्ञान में परिणत हो जायेगी । तब हम सन्देह की जरा-सी भी संभावना के बिना यह देखेंगे कि सभी कुछ एक ही संकल्पशक्ति की क्रिया के अंतर्गत घटित होता है और वह संकल्पशक्ति प्रज्ञा भी है क्योंकि वह जीवन में सदा ही आत्मा और प्रकृति की सच्ची क्रियाओं को विकसित करती है । जब हम ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करेंगे और अपनी सम्पूर्ण सत्ता एवं चेतना को एवं अपने समस्त चिंतन, संकल्प और कर्म को उन्हीं के हाथों में अनुभव करेंगे तथा सभी वस्तुओं में एवं अपनी आत्मा और प्रकृति के प्रत्येक करण के द्वारा परमात्मा की प्रत्यक्ष, अंतर्यामी और प्रभुत्वशालिनी संकल्पशक्ति को अनुमति प्रदान करेंगे तब वह हमारी सत्ता की स्वीकृति अर्थात् श्रद्धा की पराकाष्ठा होगी । और श्रद्धा की वह सवोच्च पूर्णता दिव्य शक्ति के लिये एक अवसर एवं पूर्ण आधार का भी काम करेगी : पूर्णता प्राप्त कर लेने पर वह ज्योतिर्मय अतिमानसिक शक्ति के विकास, आविर्भाव और काय-कलाप का आधार बनेगी ।

 

*

  माता (The mother) पुस्तक मैं आपने कहा हे कि वैध महाशक्ति के रूप में ' 'श्रीमां जो कुछ देखती एवं अनुभव करती हैं तथा अपने में से उंडेलती हे उसके द्वारा इस ब्रह्माण्ड में तथा पार्धिव विकास में जो कुछ घटित होना है उसका निर्धारण करती हैं । ऐसा करती वे वहां देवगण के ऊपर स्थित हैं उनकी सभी शक्तियां और विग्रह ( व्यक्तित्व) इस कार्य के लिये उनके अंदर से बाहर निकल उनके सामने आ उपस्थित होते हैं और वे उनकी अंश- विभूतियों को इन निम्नतर लोकों में भेजती हैं जिससे के ( अर्श- विभूतियां) इनमें अंत: क्षेप करके इनपर शासन करें

 

योग-समन्वय (शताब्दी-संस्करण, ११७२ ) पृ. १०४ - ०६ ।

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    युद्ध करके विजय लाभ करें इनके युगचक्रों का परिचालन आवर्तन एवं परिवर्तन करें, इनकी शक्तियों की समष्टिगत और व्यष्टिगत कार्य- दिशाओं का निर्दलन करें !'' ' क्या इसका यह अर्थ है कि विश्व- युद्ध या बोल्शेविक क्रांति या सत्याग्रह- आन्दोलन आदि किसी रूप में माताजी के द्वारा आयोजित एवं निर्धारित किये गये थे ?

 

वे घटनाएं विश्व-योजना के अन्तर्गत ही हैं और अतएव वैश्व महाशक्ति के द्वारा आयोजित की गयी थीं और प्रकृति की शक्ति के आवेग के अधीन लोगों के द्वारा क्रियान्वित की गयी थीं ।

 

  माताजी की प्रेम और आनंद की अतिमानसिक शक्ति

 

  'चंडी ' पुस्तक में अन्य शक्तियों के साथ- साथ श्रीमां की चार विष्टा- शक्तियों के नाम - महेश्वरी महाकाली महालक्ष्मी और महासरस्वती - तो वर्णित हैं पर ' राधा ' का नाम नहीं दिया गया है यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जब ' चंडी ' की रचना थी तब ऋषियों की

के सामने राधा- शक्ति नहीं प्रकाशित थी और 'वडी ' में केवल श्रीमां की विश्व- शक्तियों का ही वर्णन आया है? उनकी अतिमानसिक शक्तियों का वहां उल्लेख नहीं है 7 अपनी पुस्तक 'दि मदर ' ((दुष्ट अठ'मुष्टव में श्रीम? की चार शक्तियों का वर्णन करने के बाद आपने कहा कि '' मां भगवती के और भी कई महान् व्यक्तित्व हैं पर उनका अवतरण कराना अधिक कठिन रहा और भू- पुरुष के क्रमविकास में के उतनी स्पष्टता के साथ सामने आये भी नहीं हैं । उनमें अवश्य ही कुछ व्यक्तित्व ऐसे हैं जो विज्ञान-सिद्धि के लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं - सबसे अधिक आवश्यक वह है जो माता के परम भागवत प्रेम से प्रवाहित होनेवाले रहस्यमय परम उल्लासमय आनंद की है यह वह आनंद है जो विज्ञान- चैतन्य के उच्चतम शिखर और जड़ प्रकृति के निम्नतम गह्वर के बीच का महान् अंतर मिटाकर दोनों को मिला सकता है अनुपम परम दिव्य जीवन की ' इसी आनंद के पल्ले है और अब भी यही

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    आनंद अपने गुफ्त धाम से विश्व की अन्य सभी महाशक्तियें के  कार्य का सहारा बना हुआ है ! '' इस उद्धरण में जिस मूर्ति बात कही गयी हे क्या वह ' राधाशक्ति ' नहीं है जिसे प्रेममयी राधा महाप्राण- शक्ति और हलादिनी- शक्ति भी कहा गया है?

 

हां; परंतु राधा-कृष्ण-लीला के प्रतीक प्राणमय जगत् से लिये गये हैं और इस कारण वहां जिस शक्ति का वर्णन किया गया है वह राधा-शक्ति केवल एक आंतर प्रकाश है । यही कारण है कि उसे महाप्राण-शक्ति और हाला दिनी-शक्ति कहा गया है । यहां (ऊपर उद्धरण में ) जिस शक्ति की बात कही गयी है वह यह आंतरिक रूप नहीं है बल्कि वह तो ऊपर के प्रेम और आनंद की पूर्ण शक्ति है ।

 

७ - २ - ११३४

 

सभी स्तरों में श्रीमां की शक्तियां

 

क्या महेश्वरी संबोधि और अधिमानस स्तर की देवी हैं?

 

अधिमानस से लेकर भौतिक तक के सभी स्तरों में ये शक्तियां प्रकट हो सकती हैं ।

 

२५ - ८ - ११३३

 

 माताजी की शक्तियों के अनेक रूप

 

जहांतक देवताओं का प्रशन है । मनुष्य उनके ऐसे रूप रच सकता है जिन्हें वे स्वीकार करेंगे, पर इन रूपों की अंतः प्रेरणा भी मनुष्य के मन के अंदर उन्हीं स्तरों से आती है जिनसे वे देवता संबंध रखते है । समस्त सृष्टि के दो पक्ष हैं, साकार और निराकार, -देवता भी निराकार हैं, तथापि उनके आकार भी हैं, पर एक ही देवता अनेक रूप ग्रहण कर सकता है, यहां महेश्वरी का , वहां पालस एथिनी का । स्वयं महेश्वरी के, अपनी निम्नतर अभिव्यक्ति में अनेक रूप हैं -दृर्गा, उमा, पार्वती, चण्डी इत्यादि । देवता मानवीय रूपों की सीमा में आबद्ध नहीं -मनुष्य ने भी उनके दर्शन सदा मानवीय रूपों में ही नहीं किये ।

७ 


कृष्ण-महाकाली

अपनी वैश्व शक्ति में माताजी सभी वस्तुएं तथा सभी दिव्य व्यक्तित्व हैं, क्योंकि उनके बिना तथा उनकी सत्ता का एक अंग-रूप हुए बिना कोई भी वस्तु अभिव्यक्त रूप में नहीं आ सकती । परंतु 'विज़न्स एण्ड वॉयसिज''(visions and voice) में जो कुछ कहा गयाहैउसकाअभिप्राययह था कि ईश्वर और भगवती शक्ति एक ही 'व्यक्ति' या पुरुष के दो पक्ष हैं और कृष्ण- महाकाली के रूप में उनके इस दिव्यदर्शन को इस पुस्तक में इस रूप में प्रस्तुत किया गया है कि यह अभिव्यक्ति के लिये एक महाशक्ति है ।

२०-१०-११३६

 

दुर्गा

 

दुर्गा अपने अंदर महेश्वरी और महाकाली के गुणधमों को कुछ अंश में संयुक्त किये हुई हैं,-महालक्ष्मी के साथ उनका कोई अधिक संबंध नहीं । कृष्ण और महाकाली का संयोग एक ऐसा संयोग है जिसका इस योग में महान् शक्तिशाली प्रभाव होता है और यदि ये नाम तुम्हारी चेतना में एक साथ उठते हैं तो यह अच्छा लक्षण है ।

२१-३-११३८

 

*

 दुर्गा श्रीमां की संरक्षण-शक्ति हैं । 

१५-४-१९३३

 

*

 

सिंह, जिस पर दुर्गा आसीन हों, दिव्यीकृत भौतिक-प्राणिक और प्राणिक- भाविक शक्ति के द्वारा कार्य कर रही भागवत चेतना का प्रतीक होता है । 

 

*

 सिंह देवी दुर्गा का । जगदम्बा के विजयशील और रक्षाकारी पक्ष का सूचकलक्षण है ।

 

     'एक साधक द्वारा लिखी पुस्तक ।

५८ 


  मृत्यु का सिर भगवती शक्ति द्वारा पराजित और निहत असुर का (देवताओं के शत्रु का) प्रतीक है ।

 

                 महाकाली और काली

 

महाकाली और काली एक ही नहीं । काली एक अवर (निम्न कोटि का) रूप है । उच्चतर भूमिकाओं में महाकाली सामान्यतया सुनहरे रंग में प्रकट होती हैं ।

        यह काली, श्यामा इत्यादि साधारण रूप हैं जो प्राण के द्वारा दिखायी देते हैं; महाकाली का सच्चा रूप, जिसका मूल अधिमानसलोक में है, काला या धूमिल या भयानक नहीं है बल्कि सुनहले रंग का है और असुरों के लिये भीषण होने पर भी सौन्दर्य से भरपूर हैं ।

 

१० - २ - ११३४

*

 

   आज प्रार्थना करते समय मुझे काली माता की मूर्ति दिखायी दी वह काले रंग की और नग्न थी और शिव की पीठ पर पैर रखे खड़ी थी - जैसा परम्परागत रूप से उसका वर्णन किया जाता है काली इस रूप में क्यों दिखायी देती हैं और किस स्तर पर वे ऐसी दिखायी देती हैं?

 

ऐसी वे प्राण के स्तर पर दिखायी देती हैं । यह है विनाशकारी शक्ति के रूप में काली -यह उस अज्ञान गत प्रकृति-शक्ति का प्रतीक है जो कठिनाइयों से घिरी होती है, उनसे पार होने के लिये अंध संघर्ष में प्रत्येक वस्तु को तोड़ती- मरोड़ती चली जाती है जबतक कि वह अपने को स्वयं भगवान् पर ही पैर रखे खड़ी नहीं पाती -तब वह अपने- आपे में आ जाती है और संघर्ष एवं विनाश समाप्त हो जाते हैं । यही है इस प्रतीक का अर्थ ।

 

१ - २ - ११३४

 

माताजी की महाकाली-शक्ति का कार्य

 

   '' माता '' पुस्तक के पृष्ट ५० पर माताजी की महाकाली- शक्ति के बारे में कहा गया है कि '' उनकी मुजाएं मारने और तारने को आगे बड़ी रहती हैं । '' यहां पर '' मारने '' का तात्पर्य क्या है?

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यह संसार में होनेवाली उनकी साधारण क्रिया को प्रकट करता है । वे असुरों पर प्रहार करती है,, वे ऐसी प्रत्येक चीज पर प्रहार करती हैं जिससे पिंड छुड़ाना है या जिसे नष्ट करना है, साधना की बाधाओं आदि पर भी प्रहार करती हैं । मैं कह सकता हूं कि माताजी कभी महाकाली-शक्ति या महाकाली का दबाव तुम पर प्रयुक्त नहीं करतीं ।

५-६-१९३६ 

*

 

  माताजी के महाकाली- रूप के विषय में ' माता ' पुस्तक में कहा गया है,  '' जब उन्हें अपनी सामर्थ्य के साथ कहीं भी दखल देने का अवसर मिलता है तब बे सब बाधाएं जो साधक को पंगु बना देती हैं एक क्षण में नि:सार पदार्थ के समान नष्ट हो जाती हैं और के सब शट्ट भी मृतप्राय हो जाते हैं जो साधक पर आक्रमण किया करते हैं । '' महाकाली- शक्ति के इस हस्तक्षेप का अनुभव किस रूप में होता है?

 

यह मानों किसी क्षिप्र, आकस्मिक, सुनिश्चित और अनिवार्य वस्तु के रूप में अनुभूत होता है । जब यह हस्तक्षेप करता है तब इसके पीछे एक प्रकार को भागवत या अतिमानसिक स्वीकृति होती है और यह एक अंतिम आज्ञा के  होता है जिसके विरुद्ध कोइ अपील नहीं चलती । जो कुछ किया जा चुका है वह न तो उलटा जा सकता है न मिटाया जा सकता है । विरोधी शक्तियां कोशिश कर सकती हैं, यहांतक कि छू सकती या चढ़ाई कर सकती हैं, पर घबराकर लौट जाती हैं और, ज्योंही वे पीछे हटती हैं । पुराना मैदान जैसा- तैसा सुरक्षित दिखायी पड़ता है - आक्रमण के समय भी यह अनुभव रहता है । वे कठिनाइयां भी जो इससे पहले प्रबल थीं, इस निर्णय के छू देने से अपनी शक्ति खो बैठती हैं । उनकी संभावना नष्ट हो जाती है अथवा वे दुर्बल छाया- सी रह जाती हैं जो केवल टिमटिमाने और बूझ जाने के लिये ही आती है । मैंने ऊपर ' अवसर मिलने ' की बात कही है । क्योंकि महाकाली की यह चरम क्रिया अपेक्षाकृत बहुत कम होती है । अन्य शक्तियों की किया या महाकाली की आशिक किया ही अधिक होती है ।

 

२४ - ८ - ११३३

६०


मित्र

 

हां, मित्र वास्तव में दो शक्तियों (महालक्ष्मी और महासरस्वती) का संयोग है |

 

महासरस्वती का स्पर्श

 

   वह कौन- सी प्रज्ञा है जो मानव- मस्तिष्क में अधिक गहरे वलयन- थ,' हृदय के प्रकोष्ठों में सर्वथा निर्दोष पट तथा रचना की ऐसी अन्य सूक्ष्मताएं लायी? क्या यह महासरस्वती का कार्य है?

 

हां -सूक्ष्मांश  की जटिलता की समस्त आता महासरस्वती के सर्प की द्योतक  है |

 

११ - १ - ११३३

 साधना की वर्तमान गतिविधि

 

   क्या यह सच है कि यहां हमारी साधना में अधिकतर श्रीमां का महा- सरस्वती- रूप ही कार्य करता है?

 

हां, इस समय, जब से साधना भौतिक चेतना के स्तर पर उतरी है तब से- या, यों कहना अधिक ठीक होगा कि यह महेश्वरी-महासरस्वती की शक्तियों का संयोग है ।

 

२४-८-१९३३

 

   ईश्वर की विभूतियों और श्रीमां की ' के बीच अभिव्यक्ति के रूप या अनुभव की से क्या अंतर है?

 

साधारणतया श्रीमां की विभूतियों नारीरूप होंगी और उनमें से अधिकांश धीमा के चार व्यक्तिरूपों में किसी एक के द्वारा अधिकृत होंगी । दूसरे, जिनका जिक्र 

एक बैद्रिक देवता |
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तुमने किया है, (ईसा, बुद्ध, चैतन्य, नेपोलियन । सीजर आदि ) ईश्वर के व्यक्ति- रूप और शक्तियां होंगे, पर सबकी तरह उनमें भी । श्रीमां को शक्ति कार्य करेगी । सारी सृष्टि और रूपांतर माताजी का ही काम है ।

 

 

*

२९ - १० - ११३५

   जब समस्त सृष्टि- कार्य उनका है तब क्या हम यह मान सकते हैं कि श्रीमां के व्यक्ति- रूप ही पर्द के पीछे से अवतार या विभूतियों के अवतरण के लिये उपयुक्त अवस्थाओं को तैयार करते है?

 

अगर तुम्हारा मतलब श्रीमां के दिव्य रूपों से हो तो उत्तर है '' हां '' । फिर यह भी कहा जा सकता हे कि प्रत्येक विभूति अपनी शक्ति इन चार शक्तियों से और अधिकतर उनमें से किसी एक से मुख्य रूप में लेती है, जैसे नेपोलियन महाकाली से, राम महालक्ष्मी से, आगस्टस सीजर महासरस्वती से शक्ति पाते थे ।

 

 ३१ - १० - ११३५

 

चित्-शक्ति, जीवात्मा, अन्तरात्मा और अहम्

 

चित्-शक्ति या भागवत चेतना स्वयं श्रीमां हैं -जीवात्मा उनका एक अंश है, चैत्य या अंतरात्मा उनकी एक चिनगारी है । अहम् चैत्य या जीवात्मा का एक विकृत प्रतिबिम्ब है । अगर तुम्हारे कहने का मतलब यही हो तो यह ठीक है ।

 

अंतरात्मा और भगवती माता

 

पृथ्वी पर आयी प्रत्येक अंतरात्मा के विषय में यह बात सत्य है कि वह भगवती माता का अंश है जो अज्ञान की अनुभूतियों में से गुजर रहा है जिसमें कि वह अपनी सत्ता के सत्य को प्राप्त करे और यहां एक दिव्य अभिव्यक्ति और कम का यंत्र बने ।

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परात्परा मां -एक मन्त्र

 

' इस मन्त्र के अँग्रेज़ी लिप्यन्तर में अन्तिम दो शब्द श्रीमाताजी ने जोड़े हैं क्योंकि

 

वे श्रीअरविन्द ने अपनी मूल लिपि में नहीं लिखे थे ।

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 श्रीमाताजी की ज्योतियां तथा दिव्य-दर्शन

 

श्रीमां की ज्योतियां

 

सभी ज्योतियों को श्रीमां स्वयं अपने अंदर से प्रकट करती हैं ।

 

ज्योति के अलग- अलग रूप

 

ज्योति एक साधारण शब्द है । ज्योति ज्ञान नहीं है । बल्कि वह एक आलोक है जो ऊपर से आता है और सत्ता को सब प्रकार के अंधकार से मुक्त करता है ।

  पर यह ज्योति नाना प्रकार के रूप भी ग्रहण करती है; जैसे, श्रीमां की सफेद ज्योति, श्रीअरविन्द की हल्की नीली ज्योति । सत्य की सुनहली ज्योति, चैत्य ज्योति (लाल और गुलाबी) इत्यादि ।

 

१३ - १० - ११३४

 

श्रीमां की सफेद ज्योति

 

ज्योतियां श्रीमां की शक्तियां हैं और संख्या में बहुत-सी हैं । सफेद ज्योति उनकी अपनी विशेष शक्ति है, मूल रूप में स्वयं भागवत चेतना को शक्ति है ।

 

१५ - ७ - ११३४

 

*

 सफेद ज्योति श्रीमां की ज्योति है और यह हमेशा उनके चारों ओर बनी रहती  है |

 

२२ - ८ - १९३३

 

हल्की नीली ज्योति मेरी है और सफेद ज्योति श्रीमाताजी की है (यह कभी- कभी सुनहली भी होती है) । साधारणतया लोग श्रीमां के चारों ओर सफेद या सफेद हल्की नीली ज्योति देखते हैं ।

 

४ - १ - ११३३

 

*

६४


सफेद ज्योति श्रीमां की ज्योति है । जहां कहीं वह उतरती है या प्रवेश करती है वहीं वह शांति, पवित्रता, निश्चल-नीरवता ले आती है और उच्चतर शक्तियों के प्रति उद्घाटित करती है । अगर वह नाभि-केन्द्र के नीचे आती है तो उसका यह अर्थ होता है कि वह निम्नतर प्राण में काय कर रही है ।

 

३१ - ७ - ११३४ 

 

*

 

महत्वपूर्ण अनुभव है हृदय में श्वेत किरण का अनुभव -क्योंकि वह श्रीमां की ज्योति, सफेद ज्योति की किरण है, और उस ज्योति के द्वारा हृदय का आलोकित हो जाना इस साधना के लिये एक बहुत शक्तिशाली चीज है । वह साधिका जो अंतर्ज्ञान की बात कहती है वह इस बात का द्योतक है कि उसके अंदर आंतर चेतना बइ रही है -वह चेतना बढ़ रही है जो योग के लिये आवश्यक है ।

 

२८ - ७ - ११३७

 

*

यह (धीमां की ज्योति) बराबर ही आंतर पुरुष के अंदर विद्यमान रहती है । 

 

*

 

उसका अर्थ है प्राण के अंदर दिव्य चेतना की ज्योति (श्रीमां की चेतना, सफेद ज्योति) । नीला रंग उच्चतर मन का है और सुनहला भागवत सत्य है । अतएव इसका मतलब है वह प्राण जिसमें उच्चतर मन और भागवत सत्य की ज्योति है और जो श्रीमां की ज्योति छिटका रहा है । 

 

*

जो कुछ तुमने सूक्ष्म दर्शन के रूप में देखा था वह श्रीमां का अतिभौतिक शरीर था जो संभवत: उनकी सफेद ज्योति से बना था । वह ज्योति भागवत चेतना और शक्ति को ज्योति है जो विश्व के परे विद्यमान है ।

३०-१-१९३५

 

*

 

  आज प्रणाम- गृह में ध्यान करते समय मैंने सूक्ष्म से एक परबत श्रेणी देखी जिससे सफेद ज्योति निकल रही थी 7 इसका तात्पर्य क्या है?

  किस लोक का   रविशंकर हैं ?

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मानसिक लोक का । पर्वत निम्न स्तर से उच्च स्तर में आरोहण सूचित करता है । सफेद ज्योति श्रीमां की ज्योति है, उच्चतर स्तरों से उतरनेवाली भागवत चेतना की ज्योति है ।

 

७ - ८ - ११३३

 

*

 

यह (सफेद कमल) श्रीमाताजी का, भागवत चेतना का फूल है ।

 

१५ - ४ - ११३३

 

*

 

   आज श्रीमाताजी ने जैसे ही प्रणाम- गृह में आसन ग्रहण किया वैसे ही मैंने देखा कि उनके दाएं और बाएं दोनों ओर सफेद ज्योति चमक रही है क्या मेरे इसे देखने का कोई विशेष कारण था?

 

नहीं; श्रीमाताजी के चारों ओर हमेशा ही सफेद ज्योति देखी जा सकती है; क्योंकि यह उन्हीं की ज्योति है और हमेशा उनके साथ रहती है ।

 

८ - ८ - ११३३

 

*

 

   कल शाम जब श्रीमां छत पर टहल रही थीं तब मुझे उनके शरीर पर एक ज्योति दिखायी दी वह क्या थी?

 

बहुत-से लोग श्रीमां के चारों ओर प्रकाश देखते हैं । वह प्रकाश वहां सदा ही रहता है ।

 

२६ - ७ - ११३३

 

 श्रीमाताजी का ज्योतिर्मण्डल

 

लोग श्रीमां के चारों ओर जो कुछ देखते हैं वह पहले तो उनका ज्योतिर्मण्डल होता है, जैसा कि उसे आजकल की भाषा में नाम दिया गया है, और दूसरे, वे सब ज्योति की शक्तियां होती हैं जो उनके ध्यान करने के समय उनसे बाहर निकलती हैं, उदाहरणार्थ छत के ऊपर, जहां वह हमेशा ही ध्यान किया करती हैं । (प्रत्येक मनुष्य का एक ज्योतिर्मण्डल होता है -पर अधिकांश लोगों में वह दुर्बल होता है और अधिक प्रकाशयुक्त नहीं होता श्रीमां का ज्योतिर्मण्डल

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ज्योतियों और शक्तियों की पूरी लीला होता है) । लोग उसे साधारणतया नहीं देखते । क्योंकि वह एक सूक्ष्म- भौतिक चीज है, कोई स्थूल जड़ व्यापार नहीं है । लोग उसे केवल दो अवस्थाओं में देख सकते हैं -एक तो, अगर वे पर्याप्त रूप में सूक्ष्म दृष्टि विकसित करें, या फिर स्वयं ज्योतिर्मण्डल ही इतना सदृश होना आरंभ कर दे कि वह उसे ढक रखनेवाले स्थूल जड़-तत्त्व के कोष पर भी प्रभाव डाल सके । निश्चय ही माताजी उसे लोगों को दिखाने का कोई विचार नहीं रखतीं - अपने- आप ही, एक के बाद एक, आश्रम के करीब २० या ३० आदमियों ने शायद उसे देखा है । निस्सन्देह यह इस बात का द्योतक है कि उच्चतर शक्ति (चाहे उसे अतिमानसिक कहो या न कहो) ने जड़-तत्त्व पर प्रभाव डालना आरंभ कर दिया है ।

 

१५ -११ १ - ११३३ 

 

*

 यदि श्रीमाताजी की ज्योति को देखना एक गलत बात हो या मन या प्राण की एक रचना हो तो भगवान् की उपलब्धि तथा सभी आध्यात्मिक अनुभूतियों पर मानसिक या प्राणिक रचना या भूल होने का संदेह किया जा सकता है और इस तरह सारा योग ही असंभव हो जाता है ।

 

६- १ - ११३३

 

 श्रीमां की हीरक-ज्योति

 

  (क) इस (हीरे की जैसी ज्योति) का अर्थ है श्रीमां की मूल शक्ति ।

  (ख ) हीरक-ज्योति भागवत चेतना के हृदय से निकलती है और जहां जाती है वहां भागवत चेतना की ओर उद्घाटन ले आती है ।

  (ग) श्रीमाताजी के हीरक-ज्योति के साथ उतरने का अर्थ हे तुम्हारे अंदर होनेवाली क्रिया को परात्पर शक्ति का अनुमोदन प्राप्त होना ।

  (घ) श्रीमां की हीरक-ज्योति पूर्ण पवित्रता और शक्ति-सामर्थ्य की ज्योति है । 

  (ड: ) हीरक-ज्योति भगवान् की केन्द्रीय चेतना और शक्ति है ।

 *

 

 हीरा श्रीमां की ज्योति और क्रियाशक्ति का सूचक है -हीरे की जैसी ज्योति

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अपने खूब घने रूप में उनकी चेतना की ज्योति है ।

 

१३-११-१९३६

 

 श्रीमां के महाकाली-रूप की सुनहली ज्योति

 

श्रीमां की ज्योति सफेद होती है-विशेषकर हीरे-जैसी सफेद । महाकाली का रूप साधारणतया सुनहला होता है, खूब उज्ज्वल और तीव्र सुनहला ।

 

१२-१०-११३५ 

 

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सुनहली ज्योति भागवत सत्य की ज्योति है जो साधारण मन से ऊपर के उच्चतर लोकों में दिखायी देती है-यह मूलत: अतिमानसिक ज्योति है । यह मन से ऊपर दिखायी देनेवाली महाकाली की भी ज्योति है सफेद ज्योति की तरह सुनहली ज्योति भी प्रायः ही माताजी से निकलती हुई दिखायी देती है ।

१७-९-१९३३ 

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   मैंने सुना है कि काली का रंग काला है और उनके चार हाथ है परंतु मैंने अपने अतंर्दर्शन में उनके केवल दो ही हाथ देखे और उनका रंग तेज सफेद था | मैंने उन्हें ऐसा क्यों देखा?

 

प्राणमय लोक में होनेवाली महाकाली की एक अभिव्यक्ति का रूप काला होता है-परंतु अधिमानस-लोक में स्वयं महाकाली सुनहली हैं । जिसे तुमने देखा था वह अपने ज्योतिर्मय शरीर में महाकाली-शक्ति को लिये हुई स्वयं श्रीमाताजी थीं, वह ठीक महाकाली का रूप नहीं था ।

 

. २६-१-११३३

 

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  यह पीले रंग की आभा पर निर्भर करता है । यदि वह सुनहरा सफेद है तो वह मन से ऊपर के स्तर से आता है और रंगों का यह संयोग महेश्वरी-महाकाली की शक्ति का सूचक है । उच्चतर मन का रंग फीका नीला है ।

 

२१-३-१९३८

 

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